ग़ज़ल २
जाने कितने ख्वाब हमारे अंतर मन में टूटे
कुछ तो दिल में क़ैद रहे कुछ हाथों से छूटे ।
कैसे कह दें कौन है अपना कौन यहां बेगाना
कुछ तो अपने लगते हैं और कुछ हैं रूठे रूठे ।
ले जाते हैं हमको अक्सर सहरां से वीराने तक
सुन आज बहारों के ये मौसम हमें लग रहे झूठे ।
चांद दूर है लेकिन मन के आँगन में आ जाता था
आज छुपाकर चांद गगन नें ख्वाब हमारे लूटे।
जिस दिल में तुम रहते थे उसको ही यूं चाक किया
इस प्यार की रुसवाई में हैं जख्म हज़ारों फूटे
आंखों में गुमसुम हैं ‘जानिब’ ये दर्द जुदाई वाले
कुछ दरिया बन बह निकले कुछ आंखों में सूखे।
— पावनी दीक्षित ‘जानिब’