“बदल जाते तो अच्छा था”
समय के साथ हम भी कुछ, बदल जाते तो अच्छा था।
नदी के घाट पर हम भी, फिसल जाते तो अच्छा था।
महकता था चमन सारा, चहकता था हरेक बूटा,
चटकती शोख़ कलियों पर, मचल जाते तो अच्छा था।
पुरातनपंथिया अपनी, बनी थीं राह का रोड़ा,
नये उन रास्तों पर हम, निकल जाते तो अच्छा था।
मगर बन गोश्त का हलवा, हमें खाना नहीं आया,
सलीके से गरीबों को, निगल जाते तो अच्छा था।
मिली सौहबत पहाड़ों की, हमारा दिल हुआ पत्थर,
तपिश से प्रीत की हम भी, पिघल जाते तो अच्छा था।
जमा था “रूप” का पानी, हमारे घर के आँगन में,
घनी ज़ुल्फों के साये में, ग़ज़ल गाते तो अच्छा था।
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(डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’)