बिछोह
आज राजेंद्र बाबू का पछत्तरवां जन्मदिन था. पोती ने बर्थडे का केक डाइनिंग टेबल पर सजा दिया था. इंतज़ार था तो उनके मित्र अरोड़ा जी का. उनके आते ही केक काटा जाना था.
आज सुबह से ही राजेंद्र बाबू बीते जीवन को याद कर रहे थे. कई भूले बिसरे चेहरे मानस पटल पर उभर रहे थे. कभी कोई याद उन्हें गुद गुदा जाती थी तो कभी कोई दिल में टीस पैदा करती थी.
उन्हें याद आए वो मित्र जो साथ छोड़ कर जा चुके थे. चार दोस्तों का अपना ग्रुप था. उनकी मुलाकात एक विभागीय ट्रेनिंग के दौरान हुई थी. वहाँ हुई जान पहचान एक पक्की दोस्ती का आधार बनी. चारों एक दूसरे के सुख दुख के साथी बने. स्थानों की दूरियां तो आईं किंतु दिलों के बीच कभी दूरियां नही आईं.
अवकाशग्रहण के बाद समय भी था और ज़िम्मेदारियों से भी निजात मिल चुकी थी. चारों एक साथ खूब वक्त बिताते थे. लेकिन पाँच साल के भीतर ही दो दोस्त अलविदा कह कर चले गए. बच गए राजेंद्रबाबू और अरोड़ा जी. पिछले दस साल से दोनों एक दूसरे का साथ निभा रहे थे.
यूं तो ज़िंदगी में मिलना बिछड़ना लगा रहता है. किंतु उम्र के एक पड़ाव के बाद नए रिश्ते मुश्किल से बनते हैं. अतः पुराने रिश्तों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है. अब जब पत्नी भी साथ छोड़ गई थी तथा बीमारियों ने शरीर को घेरना आरंभ कर दिया था. अरोड़ा जी की ज़िंदादिली उन्हें हौंसला देती थी.
फोन की घंटी से विचारों का सिलसिला टूट गया. बहू ने फोन उठाया कुछ देर बात की और रख दिया. वह बहुत दुखी लग रही थी. राजेंद्रबाबू ने प्रश्न भरी दृष्टि डाली. बहू ने सजल नेत्रों से बताया कि आज दोपहर अरोड़ा अंकल की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई.
राजेंद्रबाबू ने गहरी सांस ली और वहीं सोफे पर बैठ गए.