ग्रीन सिग्नल
“वृद्धाश्रम…??? ओह बेटे, तुमने यह सोच भी कैसे लिया कि मैं इसके लिए तैयार हो जाऊँगी…?”
दुखातिरेक से तरुणा की आँखों में आँसू उतर आए.
देवेश सामने ही सिर झुकाए खड़ा था, संयत स्वर में बोला-
-माँ मैंने सिर्फ पूछा है आपसे, आप तो जानती हैं, आपकी इच्छा के बिना मैं आपके बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकता. आप एक बार ठण्डे मन से विचार कर लीजियेगा, मुझे फैसला करने के लिए तीन महीने का समय दिया गया है, मैं तनु को लेने जा रहा हूँ…दो दिन बाद हम वापस आएँगे”. कहते हुए वो बाहर निकल गया.
बहू तन्वी १५ दिन के लिए मायके गई हुई थी. अब बेटे के जाने से दो दिन उसे अकेली ही रहना है.
तरुणा यह तो समझती थी कि आजकल छोटी-मोटी नौकरी से गुज़ारा होना बहुत मुश्किल है. लगातार प्रयास करते-करते अब दुबई से एक अच्छे जॉब का ऑफर आया है, कह रहा था-वहाँ तनवी को भी कोई न जॉब आसानी से मिल जाएगा और आजकल दूरियाँ रह ही कहाँ गई हैं, ऑनलाइन फलक पर पूरी दुनिया एक मंच पर अवतरित हो जाती है. यह फ़्लैट बेचकर उसकी व्यवस्था एक अच्छे से प्राइवेट वृद्धाश्रम में सर्व-सुविधा जनक कमरे में करके जाएगा, जहाँ वो कंप्यूटर द्वारा परिवार से जुड़ी रहेगी और वहाँ अच्छी तरह सेटल होने के बाद उसे भी साथ ले जाएँगे, लेकिन तरुणा का मन वृद्धाश्रम का नाम सुनते ही मन डांवांडोल होने लगता है.
बेटा क्या जाने…साथी के चले जाने के बाद वो कितनी अकेली हो गई है. अपनों के बिना वो कैसे जी पाएगी…?लाख महफ़िलें हों लेकिन मन का मंच, मीत बिना गुलज़ार हो सकता है क्या? न जाने आजकल के बच्चों को हो क्या गया है, परिवार छोटे क्या हुए, बड़े-बुजुर्गों की किश्ती मझधार में ही अटकी हुई रहने लगी है. पर वो भी भावनाओं में नहीं बहने वाली…बच्चों की खिलखिलाहट ही तो उसके जीने का सहारा है…उनके बिना तो फूलों से भी काँटों की चुभन महसूस होती रहेगी. सोचते-सोचते सिर दर्द से फटने लगा और पति की याद ने उसके दिमाग पर आकर कब्ज़ा कर लिया.
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ग्रेजुएशन पूरी होते ही उसका विवाह कर दिया गया. मन में सतरंगी सपने लिए ससुराल आई तो पता चला कि पतिदेव को टूरिंग जॉब के कारण ५ दिन बाहर रहना पड़ता है और वे सप्ताह में दो दिन ही घर आ पाते हैं, ये दो दिन भी सफ़र की थकान उतारने में निकल जाते. साथ लेकर भी जा नहीं सकते थे. इस तरह उसे पति के साथ लम्बे समय साथ रहना कभी नसीब नहीं हुआ. सास-ससुर के साथ महानगर मुम्बई के इस दो कमरे के फ़्लैट में ही रहते हुए उसका समय बीतने लगा. शिकायत करती तो वे अपनी मजबूरी बताकर उसे समझा देते. फिर एक दिन उन्होंने उसे कंप्यूटर सीखने के लिए प्रोत्साहित किया. पहले तो वो आनाकानी करती रही, उसे यह सब लफड़ा लगता था. पति समझाते-
“देखो तरु, एक बार तुम ऑनलाइन ज़िंदगी के चमत्कार देख लोगी तो कंप्यूटर से ऐसे चिपक जाओगी कि अपने आसपास की दुनिया को भी भूल जाओगी.” और सचमुच हुआ भी यही था. अब तो वे जब भी घर आते, मनुहार करके पास बिठाकर अपना कंप्यूटर ऑन करके बारीकियाँ सिखाते, वो भी हैरान सी इस तिलिस्मी दुनिया से रूबरू होती रहती. फिर एक दिन उसके लिए नया कंप्यूटर भी आ गया. अब तो उसकी दिनचर्या ही बदल गई थी. प्रतिदिन शाम को घर के कार्य जल्दी-जल्दी निपटाकर कंप्यूटर पर पति का चैट-बॉक्स खोलकर उनके ऑनलाइन आने का इंतजार करने लगती. उनके ऑफिस से आते ही सिग्नल ग्रीन हो जाता और तरुणा का मन ख़ुशी से उछलने लगता. वीडियो-चैट पर घंटों प्यार भरी बातें होतीं, फिर दूसरे दिन मिलने के वादे के साथ दोनों विदा होते. फिर कुछ ही समय में एक बेटे और एक बेटी के जन्म के बाद वो उनकी परवरिश में व्यस्त होती चली गई, लेकिन चैट पर मिलना यथावत था. धीरे-धीरे बच्चे बड़े होकर बड़ी कक्षाओं में पहुँच गए. इस बीच उसके सास-ससुर भी एक एक करके स्वर्गवासी हो गए. अब चेतन जब भी घर आते, कहा करते-
तरु, हमें आज तक साथ रहने का सुख नहीं मिला मगर अब बच्चों की ज़िम्मेदारियाँ पूर्ण होते ही रिटायरमेंट ले लूँगा. फिर मेरा हर पल तुम्हारे लिए होगा. एक साथ दुनिया घूमेंगे. लेकिन क्या वो दिन आ पाया? बच्चे विवाह योग्य हुए ही थे कि टूर पर जाते समय एक रेल-दुर्घटना ने उन्हें ज़िन्दगी से ही रिटायर कर दिया. अपनी उजड़ी दुनिया को तरुणा ने किस तरह सहेजा, यह सिर्फ वही जानती है.
एक बात थी कि उसे पैसे की कोई कमी नहीं आई. प्रोविडेंट फंड की रकम हाथ में आने के साथ ही बेटे देवेश को पति के स्थान पर नौकरी मिल गई. बच्चों की पढ़ाई पूरी होते ही उसने दोनों का विवाह कर दिया. बेटी अपने पति के साथ विदेश चली गई. इस तरह तरुणा अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त तो हो गई लेकिन असली समस्या तो अब सिर कुचलने के लिए मूसल लिए खड़ी थी.
नई बहू ने आते ही पति से स्पष्ट कह दिया कि वो इस तरह अकेले ज़िन्दगी नहीं काट सकती, उसे अपना जॉब बदलना पड़ेगा. तरुणा भी भला कैसे विरोध करती, जो सजा बेकसूर होते हुए भी उसने आजीवन भोगी, उसके लिए बहू को क्योंकर मज़बूर करे. बेटे ने वो नौकरी छोड़ दी और उसे मुम्बई की ही एक प्राइवेट कम्पनी में जॉब मिल गया. कुछ समय सुखपूर्वक निकल गया लेकिन बहू की गोद में जुडवाँ बेटे आने के बाद उसकी तनख्वाह से इस महानगर में गुज़ारा होना मुश्किल हो गया. उसने अनेक स्थानों पर अच्छी नौकरी के लिए आवेदन दे दिए. लेकिन बस इस दुबई वाले जॉब में ही तगड़ी तनख्वाह के साथ आवास सुविधा भी कम्पनी की तरफ से थी.
बेटा उसे विचारों के गहन सागर में गोते लगाने के लिए छोड़कर चला गया था. आज भी वो हमेशा की तरह आधी रात तक बंद कमरे में कंप्यूटर पर पति के ऑनलाइन आने का इंतजार करती रही. उसका मन यह मानने को तैयार ही नहीं होता था कि अब चेतन कभी ऑनलाइन नहीं आएँगे. उसके अरमानों की खिड़की पर कभी ग्रीन सिग्नल नहीं दिखेगा. लेकिन समय एक ऐसी मरहम है जिसमें गहरे से गहरा ज़ख्म भरने की शक्ति होती है. किसी के बिछुड़ने से जीवन सफ़र रुक नहीं जाता. उसे तो चलना ही है, अतः मन को समझाकर उसने पति के दिए हुए उपहार ‘ऑनलाइन दुनिया’ को ही जीने का सहारा बनाने का निर्णय किया.
काफी समय से लंबित पड़ी मित्रता के लिए भेजी हुई अर्जियों को एक एक करके जाँच-पड़ताल के बाद कन्फर्म करने के साथ ही फेसबुक के प्रलोभन स्वरूप दिखाए हुए नामों की भी जाँच पड़ताल करके मित्र-संख्या बढ़ाने लगी. अचानक ऐसे ही एक नाम पर उसकी नज़रें ठहर गईं. “मानव आहूजा…” दिमाग पर जोर लगाया तो उसके सामने लगभग ४५ वर्ष पहले का सुप्त बचपन अँगड़ाइयाँ लेता हुआ जाग उठा.
यह तो शायद उसका पड़ोसी और सहपाठी मित्र मन्नू है. उसने उसकी प्रोफाइल पर जाकर खोज की तो शहर का नाम भी उसके मायके का था. परिचय गहरा नहीं था लेकिन मायके का तो परिंदा भी प्यारा लगता है, और अब वो मुम्बई का ही निवासी है.
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घर के निकट ही एक माध्यमिक विद्यालय में वे एक साथ पढ़े और बस्ती की गलियों में खेले थे. एक दिन हल्की बूँदा-बाँदी में घर के पास ही खाली मैदान में वो हाथ में छोटी सी लकड़ी की छड़ी लेकर यह कहते हुए गोल-गोल घूम रही थी-
“कोई मेरे पास न आए, अगर लगे तो मैं ना जानूँ…” और खेलते हुए मन्नू को छड़ी सिर पर लगी थी. वो जोर-जोर से रोने लगा था. माँ की पिटाई के डर से उसके तो छक्के ही छूट गए थे. कुछ बच्चे रोते हुए मन्नू को माँ के पास ले गए तो माँ ने उसे पकड़ कर लाने के लिए कहा था. वो जंगल की तरफ तेज़ी से भाग निकली थी, बच्चे उसे पकड़ नहीं सके और वापस चले गए थे. वो अँधेरा घिरने तक छिप-छिप कर घूमती रही, फिर यह सोचकर कि अब मामला शांत हो चुका होगा घर की तरफ चल दी थी. धीरे-धीरे ठिठक-ठिठक कर उड़का हुआ दरवाजा खोला था तो सामने मन्नू की माँ आँगन में ही रो-रो कर चुप हो चुके मन्नू के साथ तख्त पर बैठी दिखी थी. उसे देखते ही माँ छड़ी लेकर एक सख्त निगाह उसपर डालते हुए आगे बढ़ी थी, यह देखकर अचानक मन्नू बोल पड़ा था-
“चाची, तरु को मत मारो, गलती मेरी ही थी, मैं ही इसके पास तक चला गया था.”
सुनकर उसकी जान में जान आई थी. कृतज्ञता से मन्नू की तरफ देखा था और दोनों महिलाएँ हक्की बक्की रह गई थीं. उसके बाद वे बहुत अच्छे मित्र बन गए थे. आठवीं कक्षा तक आते-आते वे किशोर वय में प्रवेश कर चुके थे और उनमें एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक आकर्षण महसूस होने लगा था. परीक्षा के बाद वो विद्यालय तो छूट गया, अब आगे की पढ़ाई के लिए सोचना था. गर्मी की छुट्टी लगते ही वो नानी के पास चली गई थी, जब वापस आई तो पता चला था कि मन्नू का परिवार वो मोहल्ला छोड़कर कहीं और चला गया है. सुनकर तरुणा को लगा था जैसे कोई अपना सा बिछुड़ गया हो, लेकिन वो किसी से पूछ भी नहीं सकती थी, क्योंकि घर के संस्कार इसकी इज़ाज़त नहीं देते थे. इस तरह दो दिलों के बीच प्रेम का अंकुर फूटने से पहले ही मुरझा गया. आगे की पढ़ाई के लिए उसका दाखिला कन्या पाठशाला में करवा दिया गया था. बस, उसके बाद वे कभी नहीं मिले थे.
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पूरी तसल्ली के लिए उसने धड़कते दिल से उसे मित्रता की अर्जी भेज दी. फिर याद आया कि उसका फेसबुक खाता तो ससुराल के नए नाम ‘अनुसूया चेतन’ से बना हुआ है, पति ने ही इस नाम से खाता बनवाया था. बचपन का नाम तो तरुणा है…फिर उसने मन्नू की वाल पर जाकर अपने पुराने नाम के हस्ताक्षर के साथ मित्रता स्वीकार करने का अनुरोध करते हुए सन्देश भेजा. थोड़ी ही देर में अर्जी की स्वीकृति के साथ ही वो चैट-बॉक्स पर ग्रीन सिग्नल के साथ उपस्थित था.
“यह सचमुच तुम ही हो तरु…?”
-हाँ मन्नू…मैं ही हूँ”
“कितना घोर आश्चर्य है, इतने साल के बाद सोचा भी न था कि हमारी मुलाकात इस तरह होगी.”
-सचमुच मन्नू, यह ऑनलाइन दुनिया का ही चमत्कार है.
बातें करते हुए उनको यह भी भान न रहा कि अब वे पचपन की वय को छू रहे हैं. वे एक दूसरे को बचपन के नाम से ही संबोधित कर रहे थे. दोनों में खूब बातें हुईं, मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान हुआ और तरुणा के मन में पुनः नई जिजीविषा जागने लगी.
औपचारिक बातचीत के बाद मन्नू ने तरुणा से मिलने की इच्छा प्रगट की. यों तो घर में सबका अपना मित्र वर्ग था और सोसायटी में किसी के आने जाने या मिलने जुलने पर कोई रोक-टोक नहीं थी लेकिन सबके सामने वे ठीक से बातचीत नहीं कर पाते तो तरुणा ने तुरंत मन्नू को दो दिन अकेले होने की बात बताकर अपने घर का पता दिया और दूसरे दिन ही आने के लिए कह दिया.
अगले ही दिन मन्नू गुलाब के रंगबिरंगे सुन्दर फूलों के गुलदस्ते सहित उसके सामने था.
तरुणा ने उसका स्वागत करके अन्दर बुलाकर बिठाया. दोनों ही एक दूसरे के बचपन का पचपन में रूपांतरण देखकर रोमांचित हो रहे थे. फिर चाय नाश्ते के साथ ही बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ.
तरुणा ने दिल खोलकर अपनी सारी कहानी मन्नू को विस्तार से सुनाई. बेटे के साथ कल ही हुई पूरी बातचीत भी उसके साथ साझा करके मन हल्का किया. फिर मन्नू से मुखातिब होकर पूछने लगी-
-लेकिन मन्नू, तुम मुम्बई कैसे पहुँचे?
“वो मोहल्ला छोड़ने के बाद हम उसी शहर में नई कॉलोनी में आ गए थे. तुम्हें बताने का बहुत मन था बहुत याद किया था तुम्हें पर मेरे बस में कुछ नहीं था. पढ़ाई पूरी होने के बाद मेरी नियुक्ति उसी शहर में व्याख्याता के पद पर हुई थी, शादी के बाद दो बेटे हुए. उन्हें खूब पढ़ाया लिखाया, दोनों ही विदेश में नौकरी लगने से विवाह करके वहीं बस गए. हम पति-पत्नी सुखपूर्वक रह रहे थे, बेटे भी आना-जाना करते ही थे, लेकिन दो वर्ष पहले पत्नी की मृत्यु हो जाने से मैं अकेला हो गया. बेटों ने साथ चलकर रहने का आग्रह किया लेकिन मैंने इनकार कर दिया तो उन्होंने शहर का मकान बेचकर मेरे रहने की व्यवस्था अपने आने-जाने की सुविधा के कारण मुम्बई में कर दी. अब मैं अकेले ही सानंद अपने दिन व्यतीत कर रहा हूँ. तुम चाहो तो कल मेरे साथ चलकर मेरा घर देख सकती हो”.
तरुणा की स्वीकृति पाकर दूसरे दिन मन्नू जल्दी ही आ गया और टैक्सी तय करके अपने निवास का पता बताया. थोड़ी ही देर में टैक्सी एक एकांत स्थल पर प्रकृति की गोद में बसे एक भवन के सामने खड़ी थी. भवन का नामपट्ट और उसके साथ लिखी हुई इबारत पढ़ते ही तरुणा की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गईं.
-अरे! यह तो वृद्धाश्रम है मन्नू, क्या तुम यहीं रहते हो?
“हाँ तरु! लेकिन यह स्थान इतना बुरा नहीं, जितना तुम सोचती हो…यह स्थान मैंने स्वयं चुना है.”
-वाकई यह स्थान बहुत सुन्दर है मन्नू, लेकिन कोई भी स्थान चाहे कितना भी सुन्दर क्यों न हो, अपनों की महक बिना के बेजान ही नज़र आता है.
“यह तो मेरे भी मन की बात हुई, इज़ाज़त हो तो मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ तरु…”
-अरे कहो न, इसमें इज़ाज़त वाली बात कहाँ से आ गई?
“तरु, आज हम उम्र के एक ही मोड़ पर खड़े हैं, साथ ही दोनों ही अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं, यही नहीं हम पूर्व परिचित मित्र भी हैं, और एक दूसरे को अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं. बचपन में अचानक जुदा न हुए होते तो आज हमारी कहानी कुछ और ही होती…कल से ऑनलाइन मुलाकात होते ही मैं मन ही मन स्वयं को तुमसे जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम विवाह करके यहाँ एक साथ रहें और बचपन के अपरिपक्व प्रेम को पुनः पल्लवित करके एक दूसरे का सुख-दुःख साझा करते हुए जीवन व्यतीत करें?”
-तुमसे ऑनलाइन मुलाकात ने मुझे एक बहुत बड़ी समस्या से निजात दिला दी है मन्नू, लेकिन अभी तो मैं पुनः तुम्हारी पड़ोसन बनना चाहती हूँ, बाकी सब बातें समय ही तय करेगा. मैं बेटे को यह तो नहीं कह सकूँगी कि मुझे कोई अपना-सा मिल गया है लेकिन कल उसके आते ही मैं उसकी अर्थाभाव के ट्राफिक में फँस चुकी ज़िंदगी की गाड़ी को ग्रीन सिग्नल दिखा दूँगी.
-कल्पना रामानी