ऐ दोस्त! मेरी छोटी सी तनख्वाह मेरे घर में घुसने से डरती है,
परिवार की फरमाइशें, बिलों की लिस्ट जो खींचतान करती है।
दूध का बिल, पानी का बिल और धोबी का बिल तो ठीक है,
पर बिजली का बिल देखते ही तनख्वाह मेरी साँस भरती है।
राशन का बिल और बच्चों की फीस तो जुल्म गुजार देते हैं,
इन्हें देखते ही तो कसम से मेरी तनख्वाह की नानी सी मरती है।
अक्सर कर लेती मुझसे एक सवाल मेरी ये छोटी सी तनख्वाह,
महँगाई में सरकार मेरा नाम आया राम गया राम क्यों नहीं रखती है।
जेब में आने से पहले ही मैं जेब से बाहर चली जाती हूँ महँगाई में,
ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं तुम्हारी, बस ये ही बात अखरती है।
कैसे समझाऊँ मैं मेरी नादान तनख्वाह को दर्द मध्यम परिवार का,
सरकार की महँगाई की बिजली सिर्फ मध्यम वर्ग पर ही गिरती है।
गरीबों को मिल जाती है सब्सिडी और अमीरों को कोई फर्क नहीं,
देख दर्द मध्यम वर्ग का आँख भी झरने की तरह फुट पड़ती है।
ऐ तनख्वाह बस तू है तो दो वक़्त की रोटी नसीब हो जाती है,
सच तो ये है बस कहने को सुलक्षणा की अमीरों में गिनती है।
— डॉ सुलक्षणा अहलावत