गज़ल
कुछ भी तो नहीं बदला ना शाम ना सहर में,
सबकुछ वही है लेकिन रौनक नहीं शहर में,
बना दिया मुसाफिर मेरी हसरतों ने मुझको,
ना रास्ता ना मंज़िल फिर भी रहा सफर में,
दूर रह के भी तू इस तरह रूबरू है,
मेरी आँख देखती है तुझको ही हर खबर में,
मैं इश्क था, मरा हूँ तेरी बेवफाई से मैं,
मुझे मारने की कूवत कहाँ थी किसी ज़हर में,
इंसानियत को ढूँढो तुम और कहीं जाकर,
ये चीज़ नहीं मिलती अब यहाँ किसी बशर में,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।