ग़ज़ल
हस्ती’ शबनम की’ है’ सूरज का’ असर होने तक
बन्दा’ भी है ते’री’ इत्लाक* की’ नज़र होने तक |
मान भी ले कि उपेक्षा न करोगी, तो क्या
दिल तुझे देता’ रहूँ ज़ख्मे जिगर होने तक ?
इक नज़र दीद की मैं ख़्वाब लिए बैठा था
समअ दिल का न बुझा सुर्ख सहर होने तक |
काश्तकारों की’ दशा ठीक नहीं, ज्ञात उनको
देखता कोई’ नहीं दस्तनिगर होने तक |
आत्म ह्त्या का’ कहर गिरता’ है’ परिवारों पर
ख़ाक हो जाते’ हैं’ शासन को’ खबर होने तक |
यूँ ही’ चलता है’ यही चलता’ रहेगा शासन
खेज़ देखो छुपी’ ललकार ग़दर होने तक |
एक भी तो कहे’ “काली” है’ कमाई अपनी
भेद ज़ाहिर नहीं’ सी बी के’ मुखर होने तक |
शब्दार्थ
इत्लाक =बंधन से मुक्त करने वाला
सी बी = सी बी आई
दस्तनिगार =मोहताज़ ,किसीपर आश्रित
कालीपद ‘प्रसाद’