ग़ज़ल
सियासत का बाज़ार अब गर्म हो रहा है।
चैन मेरे वतन का देखो कहीं खो रहा है।
मजहब,जाति से क्यूं तोलते इन्सान को;
कैसी मानवता का यह बीज बो रहा है।
सर्वोपरि तो मातृभूमि होती है जान लो;
जाग मानव अब कौन नींद सो रहा है।
दोहरे चरित्र से क्या जीते रहोगे तुम यूं;
सरज़मीं पे शत्रु का गुणगान हो रहा है।
रहेगा नाम अमर उन वीरों का सदा;
वतन के लिए जो यूं सर्वस्व खो रहा है।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !