ग़ज़ल
जो किया छुपकर, मुहब्बत वो नुमायाँ हो गई
भूल जा, नाहक जमाने से तू परीशाँ हो गई |
काम नौटंकी थी’ अब तो नैन मिज्गाँ हो गई
चार मिसरे क्या कहे, वह तो ग़ज़लख्वाँ हो गई |
कर्म का देखो नतीजा, उम्र जिन्दाँ हो गई
शुभ नियत से धूर्त आत्मा मस्त उरियाँ हो गई |
छुप गए सब धूर्त ले कानून का कमजोर पक्ष
बादलों में ज्यों तपन की धूप पिन्हाँ हो गई |
याद आती थी वो’ बचपन की सभी घटना भी’ खूब
लेकिन अब तो जीस्त जंगल बीच निसियाँ हो गई |
पाक की ज़ोखिम भरी मंशा, भयानक धमकियाँ
देश रक्षा हेतु अब फ़ौज आज दरवाँ हो गई |
नाचना गाना, तराना दौर सब कुछ खो गया
जगमगाती वह हवेली अब तो’ वीराँ हो गई |
शब्दार्थ:
नुमायाँ-प्रकट , परीशाँ-व्याकुल ; मिज्गाँ-पलक
ग़ज़लख्वाँ-ग़ज़ल कहाने वाला
उम्र जिन्दाँ-उम्र कैद , कारावास
उरियाँ—पवित्र आत्मा ; पिन्हाँ—छिप जाना
निसियाँ—विस्मृत, भूल जाना
दरवाँ—न्योछावर हो जाना
कालीपद ‘प्रसाद