निरुत्तर
उस घुमावदार गुफानुमा बाजार से तगड़ी खरीदारी करने के बाद पसीने से लथपथ होतीं सुधा और सुरुचि बेहद थक चुकी थीं. प्यास से बेहाल होकर बाहर आकर इधर उधर नज़र दौड़ाई तो आसपास कोई होटल नज़र नहीं आया, न ही उनमें ढूँढने की शक्ति बाकी थी लेकिन सड़क के उस पार छाया में एक कतार में कुछ ठेलागाड़ियाँ देखकर गला तर करने की उम्मीद लिए फुर्ती से उधर पहुँच गईं. नींबू-पानी, जल-जीरा, लस्सी आदि ठन्डे पेय देखते हुए उनकी नज़रें नारियल-पानी के ठेले पर ठहर गईं. नारियल पानी पीते ही उनकी थकान दूर होने के साथ ही भूख प्यास दोनों से राहत मिल गई. पैसे देते-देते सुधा अपनी आदत के अनुसार नारियल वाले से जानकारी जुटाने लग गई-
“भैया, आप ये नारियल कैसे जुटाते हो और इतनी धूप में कितनी दूर से यहाँ तक ले आते हो?”
“ये बहुत मेहनत का काम है दीदी, लेकिन बचपन से करते-करते हम इसके आदी हो जाते हैं क्योंकि यही कार्य हमारी गुजर-बसर का सहारा है.”
“अगर आप बचपन में पढ़-लिख लेते तो यही कार्य बड़े पैमाने पर करके और अच्छी कमाई कर लेते और दिन-भर धूप में हलकान नहीं होना पड़ता!”
“छोड़ो सुधा, तुम भी न…भैंस के आगे बीन बजाने से बाज नहीं आओगी. पैसे दो और जल्दी चलो. पढ़-लिख कर कमाने के लिए दिमाग भी तो चाहिए न…ये लोग ऐसे कामों के लिए ही बने होते हैं.” सुरुचि ने उसे टोकते हुए कहा.
नारियल वाले को सुरुचि की बातों से अपना अपमान महसूस हुआ, तुरंत बोला-
“आप ठीक कहती हैं बहन, लेकिन हम जैसों में इतना दिमाग होता तो ऐसे वीरान स्थलों पर चिलचिलाती धूप में आप जैसों की सेवा कौन करता?”
-कल्पना रामानी