गीत-चलो कहीं बैठें, कुछ गायें
चलो कहीं बैठें, कुछ गायें.
थोड़ा सा ख़ुद से बतियायें.
इस चक्कर में उस चक्कर में.
कितना भटके रोज़ सफ़र में.
अपने लिये न पल भर पाया,
घर में रहकर रहे न घर में.
थोड़ी सी फ़ुर्सत पाई है,
फिर क्यों हों वे ही चर्चायें?
कोई आया सीधा-सादा.
कोई लेकर नेक इरादा.
लेकिन किसको अच्छा माने,
सबने अपना मतलब साधा.
मतलब वाली इस दुनिया को,
हम बेमतलब क्यों समझायें?
मानो तो सब होते अपने.
वरना सारे झूठे सपने.
ध्यान लगा है और कहीं पर,
हम बैठे हैं माला जपने.
क्यों खोयें हम ऐसे जप में,
क्यों न स्वयं माला बन जायें?
— डॉ. कमलेश द्विवेदी
मो. 09415474674