मुझे बना दीजिए राष्ट्रपति
इस समय रात के दो बज रहे हैं और पिछले एक घंटे से एक कीड़ा लगातार मुझे काट रहा है- “अबे उठ! इतनी बड़ी समस्या से देश जूझ रहा है और तू देश का एक जिम्मेदार बुद्धिजीवी, सो रहा है।”
मैंने कहा- “यार सोने दे ना। जिम्मेदार बुद्धिजीवी हूँ, इसलिए तो सो रहा हूँ। बुद्धिजीवी और क्या कर सकता है, वह भी जिम्मेदार! तू भी देश का जिम्मेदार कीड़ा है ना? सो जा।” पर वह नहीं माना। आखिर उठा कर ही दम लिया। मैंने कहा-“बोल क्या प्रोबलेम है, क्यों खुजा रहा है आधी रात को?”
“मास्साब, जागिए। देश को आपकी अतिरिक्त सेवाओं की आवश्कता है।“ ये आधी रात को अतिरिक्त सेवा की बात सुनकर, मेरी मास्टर खोपड़ी जरा ठनकी-“क्यों, मोदी जी की सरकार गिर गयी क्या? फिर चुनाव करवाने जाना है? या कहीं गाय-बैल गिनने जाना है? एक मास्टर भला इस देश की क्या अतिरिक्त सेवा कर सकता है?”
“रहा न मास्टर का मास्टर। अरे भाई, इससे भी बड़ी जिम्मेदारी है”-वह बोला।
“तो क्या फिर किसी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को हिन्दी पढ़ानी है? हमारे देश में यह बड़ी समस्या है। ये नेता और अभिनेता, सब हिन्दी को बिगाड़ने के पीछे पड़े हैं। मैंने उसे समझाया।
“अरे मूर्ख, देश को राष्ट्रपति चाहिए।“
“तो मैं क्या करूँ?”
”तू क्यों नहीं करता ट्राई? अब तो पचास पार भी कर चुका। थोड़ा-बहुत बूढ़ा भी दिखने लगा। देश का प्रथम नागरिक बन जाएगा”-उसने समझाया।
“अरे पागल है क्या यार? भैया, इस देश में समझदार माँ-बाप बड़ी मुश्किल से अपनी बेटी का हाथ, किसी मास्टर के हाथ में देकर उसे पति बनाते हैं। तकदीर से अपन भी उस पद को सुशोभित कर चुके हैं। बस यही काफी है। तू कहाँ प्रथम नागरिक बनाने पर तुला है। मैं अंतिम नागरिक ही ठीक हूँ।“ मैंने उस शांत किया।
पर, इतनी आसानी से कीड़ा पीछा छोड़ दे तो वह कीड़ा क्या ? थोड़ी सभ्यता से बोला-“देखो शरद भाई, ये छिछोरापन छोड़ो और मौके का फायदा उठाओ। राष्ट्रपति बन जाओ। ये दो कौड़ी की मास्टरी में कुछ नहीं रखा है। चार लौंडे तुम्हारे पैर क्या छूते हैं, तुम अपने को गुरू बृहस्पति और परशुराम जी का बाप समझने लगते हो। और तुम कोई पहले आदमी तो होंगे नहीं, जो मास्टरी छोड़कर राष्ट्रपति बनोगे।”
“मैं नहीं बनता राष्ट्रपति-वाष्ट्रपति” मैंने एक-एक शब्द पर जोर देकर फिर कहा। “क्यों” वह पीछा छोड़ने को तैयार न था।
“अरे, उसका प्रमोशन नहीं होता। मैं पिछले पच्चीस सालों प्रमोशन की राह देख रहा हूँ। मेरे पीछेवाले आगे निकल गये। पर हमारे सिर पर किसी ‘बाबा’ए का हाथ नहीं, तो लटके पड़े हैं। मुझे नहीं बनना राष्ट्रपति-वाष्ट्रपति।” मैं खीझा।
“तेरी मर्जी। मैं तो तेरे भले की सोच रहा था।” वह निराश हो गया। पर मेरी चेतना जागी। मैं थोड़ा गंभीर हो गया। उठा। आईने में अपना चेहरा देखा। खोपड़ी के कुछ सफेद बाल, काले बालों के पीछे से हमारी अभिनेत्रियों की तरह अंग प्रदर्शन कर रहे थें जवानी की दहलीज पर बुढ़ापे ने अपनी दस्तक तो कई दिन पहले दे दी थी। बेचारी पत्नी, समय निकालकर इन सफेद बालों का रंग-रोंगन करती रहती है, जो यह समझाने का प्रयास होता है कि वह भी अन्य पतिव्रताओं में से एक है, और कम-से कम मुझे देखकर उसे कोई बूढ़ी न समझे!
तबसे लेटे-लेटे मैं कीड़े के प्रस्ताव पर विचार कर रहा हूँ। मैं उन करोड़ो भारतवासियों में से ही एक हूँ, जिनकी उम्र बचपन से जवानी तक, स्कूल और कॉलेजों की परीक्षा के प्रश्न-पत्र में यह निबंध लिखते बीत जाती है-‘अगर मैं राष्ट्रपति होता’। न जाने कितनी योजनाओं का निर्माण मैं उत्तर-पुस्तिकाओं को रंगने में करता रहा हूँ। किन्तु परीक्षकों को कागज़ पर उतारी मेरी योजनाएँ पसंद ही न आती थीं-हमेशा शून्य दे देते थे। पूछने पर कहते कि, मेरी योजनाओं में शिक्षकों की वेतन वृद्धि का कोई उल्लेख ही नहीं होता। और अब अपने विद्यार्थियों से लिखवाता रहता हूँ-‘अगर मैं राष्ट्रपति होता’। फिर सोचा आज जब कल्पना के घोड़ों को, यथार्थ के रेसकोर्स में दौड़ने का अवसर मिल रहा है तो बुराई क्या?
प्रेरणा का गठबंधन भाषा के साथ हुआ तो आत्मविश्वास ने भी करवट ली। कीड़े को अपना प्रयास सार्थक-सा लगा- एक जिम्मेदार बुद्धिजीवी उसके जगाने पर जाग जो रहा था। गरम लोहे पर पुराना हथौड़ा चलाया-”शरद जी, इससे अच्छा अवसर आपको नहीं मिल सकता।” शायद उसे मेरे राष्ट्रपति बनने की उम्मीद हो चुकी थी, इसलिए आप-वाप का उपयोग कर रहा था।” वह ज़माना गया जब कवि, चारण और भाट की तरह राजाओं की स्तुति करते थे। अब तो राजनीति में कवियों का बड़ा ‘मार्केट’ है। एक प्रधानमंत्री भी कवि रह चुके हैं। ऐसे में राष्ट्रपति भी कवि हो जाए तो, क्या समाँ बंधेगा? ज़रा सोचो भला। जब चाहा राष्ट्रपति-भवन में गोष्ठी करवा ली, जब मन हुआ लालकिले में कवि-सम्मेलन करवा लिया।। और दो-चार गायक तुम्हारी कविताओं पर कैसेट निकाल ही देंगे, राष्ट्रपति जो रहोगे। और रिटायर होने के बाद कवि-सम्मेंलनों में अध्यक्ष से कम नहीं बनाए जाओगे, फिर जी भर अपनी कविताएँ सुनाते रहना।” कीड़े ने चिमटी काटी। वह एक कवि की कमजोरी को छेड़ रहा था। शायद वह यह नहीं जानता था कि एक छेड़ा हुआ साँड़ और छेड़ा हुआ कवि बड़ा खतरनाक हो जाता है। मैं कुछ बोलता इसके पूर्व ही वह पुनः उवाचा-“और कब तक ये मुट्ठी भींच-भींच कर और गला फाड़-फाड़कर मंच पर वीर-रस की रचनायें पढ़कर पाकिस्तान की ऐसी-तैसी करने का डैम भरते रहोगे? राष्ट्रपति की शपथ लेने के तुरंत बाद मियाँ शरीफ को चाय पर बुलाना और कहना-‘आलू से छीले जाओगे, मूली से काटे जाओगे।” कीड़े की बात में थोड़ा दम था। मुझे उसकी बात जम रही थी।
मैं सोचता हुआ छत का घूरने लगा। चलो ठीक है। कब तक मास्टरी करेंगे? बड़ी मुश्किल से पदोन्नति मिली तो माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक से अधिक न बन पाएंगे। प्राचार्य भी न बन सकेंगे-संवैधानिक शुद्र जो ठहरे। और अपनी औकात भी नहीं कि किसी गाँव के ही पंच बन सकें। जिस देश अंगूठाछापों को वोटिंग मशीन की बटन दबाने का ठीक से ज्ञान नहीं, वहाँ मुझ जैसे को एक वोट मिलना वैसे ही संदिग्ध है।
तभी कीड़े की एक बात मुझे कचोट गयी। वह बोला-“शरद जी, क्या रखा है, मास्टरी में? हर महीने की आखरी तारीख को बैठकर बजट बनाते रहो, घर का! मकान-मालिक का टेंशन अलग। पिछले डेढ़ साल से देख रहा हूँ तुम्हें सातवें वेतन आयोग के पैसे के लिए ऐसे लार टपका रहे हो जैसे, कैंसर का मरीज़ चार दिन की ज़िंदगी चाहता हो। और ये सरकार तुम्हारी एक नहीं सुन रही है! अरे! राष्ट्रपति बन गये तो, राष्ट्रपति-भवन में रहोगे। न मकान-मालिक की चिंता, न किराये की! न प्रमोशन की फिक्र, न ट्रांसफर का चक्कर का डर! शान से रहना दिल्ली में।” मैंने कहा_”यार तूने पहले ही ये मुद्दे की बात क्यों न कही? इतनी देर से नाहक दिमाग चाट रहा था।” तो मैं इस देश के सभी राजनैतिक दलों के माई-बापों से निवेदन करता हूँ कि-मुझे बना दीजिये राष्ट्रपति। वैसे भी कोई शिक्षक पहली बार राष्ट्रपति बनेगा, ऐसी बात नहीं। मेरा तो पूरा खानदान ही शिक्षक है-माँ-बाप, भाई-भौजाई, चाचा-चाची, सब। और तो और मेरा बेटा भी आजकल सबको -ए फॉर एपल पढ़ाता है। वह भी अंग्रेज़ी में! इससे पहले कि कोई और मैं तैयार हो, मैं यह त्याग करने को तैयार हूँ। मुझे बना दीजिए-राष्ट्रपति। यकीन मानिए, भले ही हर स्पर्धा में मैं अंतिम क्यों न रहा हूँ किन्तु मैं एक सफल ‘प्रथम नागरिक’ सिद्ध होऊँगा।
शरद सुनेरी