व्यंग्य : राष्ट्रीय एकता और चाय
मैं एक असामाजिक-तत्व हूँ, क्योंकि न शराब पीता हूँ और ना ही चाय। चार लोगों में बैठने लायक आदमी नहीं हूँ। शरीफ लोग कहते है-“चलो शराब से विरक्ति ठीक है, पर इस चाय ने तुम्हारा क्या बिगड़ा है? इतनी शराफत भी क्या काम की? बड़े पिछड़े आदमी हो।“ जब मुझे ‘पिछड़ा’ कहकर छेड़ा जाता है तो मैं बड़ा खुश हो जाता हूँ कि चलो कहीं तो मैं ‘पिछड़ा’! शायद भविष्य में इसी आधार पर मुझे आरक्षण मिल जाए!! अंग्रेज़ जाते-जाते दो चीज़ हमें विरासत में दे गए – भाषा के रूप में अंग्रेजी और पेय के रूप में चाय। दोनों से ही भारत आज तक पिंड नहीं छुड़ा पाया। चाय को लोग छोड़ना नहीं चाहते और अंग्रेजी लोगों को। दोनों ही भारत के मुँह लग चुकी हैं। किसी को भी ज़्यादा मुँह लगाना अच्छी बात नहीं है। हमारे बुजुर्ग कह गए हैं, पर बुज़ुर्गों की बात सुनता कौन है?
देश को एकता में बांधने के लिए कभी लोकमान्य तिलक जी ने कभी सार्वजनिक स्तर पर गणेशोत्सव का आरंभ किया था। प्रधानमंत्री जी को सलाह है कि देश में पुन: भाईचारा और एकता बढ़ाने के लिए नि:शुल्क चाय-सेवा आरंभ कर देनी चाहिए। शायद देश टूटने से बच जाए! सरकार को स्वतंत्र रूप से एक ‘चाय-मंत्रालय’ का निर्माण करना चाहिए। जो चाय पीनेवालों पर नज़र रखेगा। सरकार चाहे तो चाय मुफ्त में बाँटे पर चाय पीनेवालों पर हर बार चाय पीने का टैक्स लगाए। इससे देश को दो फायदे होंगे। एक तो सीधे अधिक राजस्व मिलेगा और निरीक्षण करने के कारण रिश्वतख़ोरी के नए आयाम खुल जाएँगे। इस प्रकार बेरोजगारी की समस्या को हटाने की दिशा में एक पहल की जा सकती है। चाय पीना पराक्रम का कार्य है, क्योंकि कई चाय पीनेवाले दिनभर में कप-कप करके लगभग दो-चार बाल्टी चाय पी जाते हैं। ऐसे पराक्रमी ‘चाय-शिरोमणि’ के पद को सुशोभित करने के हकदार होते हैं। ऐसी पराक्रमी आत्माओं को पद्मश्री से भारतरत्न तक दिया जा सकता है। लोगों में प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास होगा तो देश का भला होला। सब क्रिकेट नहीं खेल सकते! सब गाना नहीं गा सकते!! सबकी प्रतिभा एक-सी नहीं होती!! पर सब चाय पी सकते हैं!!! ‘सबका साथ-सबका विकास’ का इससे अधिक सस्ता, सुलभ, सार्वजनिक और सार्वकालिक नुस्खा कोई माई का लाल नहीं दे सकता, यह मेरा दावा है।
चाय देश को, जी नहीं, कर्मचारियों को-‘एकता’ के सूत्र में जोड़ती है। अधिकारियों को कर्मचारियों की एकता बिलकुल नहीं भाती। विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाया हुआ ‘एकता में बल’ का पाठ कार्यालय में ध्वस्त हो जाता है। यह मैंने कई बार अनुभव किया है। समझ नहीं आता पाठशाला में पढ़ाई जानेवाली एकता की शिक्षा, अधिकारियों को कार्य रूप में पसंद क्यों नहीं आती? इस देश का अधिकारी वर्ग चाय पीनेवालों से डरता है। जो डर देवराज इन्द्र को तपस्या करनेवालों से हुआ करता था, वही डर अधिकारियों को चाय पीनेवालों की टोली से होता है। न जाने क्यों? जबकि वह जानता है कि यह टोली उसका कुछ नहीं उखाड़ सकती! और ऐसे में एक कीड़ा उसे सबसे पहले काटता और डसता है- फूट डालो और शासन करो। यह गुरुमंत्र भी अंग्रेज़ दे गए थे। जो अधिकारियों के लिए ब्रह्मास्त्र का काम करता है। यह अस्त्र छूटा और सब चारो खाने चित! इसकी कोई काट नहीं बनी आजतक। बेचारे अधीनस्थ कर्मचारी झुँझलाते हैं, और खिसियानी बिल्ली के समान बाल नोचते हैं, क्योंकि ये उस क्षेत्र का खंभा भी नहीं नोंच सकते। उस खंभे पर भी अधिकारी का कब्ज़ा जो होता है।
कई लोग चाय को एक बुराई के रूप में देखते हैं। मूर्ख हैं। मैं उन टुच्चों में से नहीं। चाय भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक है। हम सबसे अधिक चाय का निर्यात जो करते हैं। चाय ने हमें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान दिया है। ऐसे में चाय के विरोध में बोलना, लिखना या चाय पीनेवालों को रोकना एक राष्ट्रीय अपराध है। मैं एक देश भक्त हूँ। देश-द्रोह का ऐसा घृणित पाप नहीं कर सकता। क्षमा करें!!
— शरद सुनेरी