कुंडलिया- ज्ञानी
ज्ञानी ज्ञानिक ढूढ़ता, सतत पंथ ज्यों संत
माया मोह विराग में , गुण गति कैसा अंत
गुणगति कैसा अंत , पन्थ देखे नित सज्जन
माया करे प्रलाप , काम क्रोधी मन दुर्जन
जपत संत हरि नाम, त्याग कलियुग गुण ध्यानी
कहे राज चितलाय, सरस गुण महिमा ज्ञानी
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’