किन्नर
हाँ, मैं हूँ किन्नर
होश संभाला
स्वयं को पाया
किन्नरों के बीच।
नहीं जानता
कैसी होती माँ
कैसा होता पिता
क्या होती ममता,
बड़ा हुआ
तब जाना मैंने
दिया जिसने जन्म
किया उसी ने बेघर।
पहन लेता हूँ
चूड़ी, बिन्दी, गजरा, पायल
ओढ़ लेता हूँ चुनरी
किन्तु खुद की देह देख
समझ नहीं पाता
मैं पुरुष हूँ या स्त्री।
मुस्करा लेता हूँ
पर उस मुस्कान
के पीछे की टीस
क्या समझेगा ज़माना।
समाज से दुत्कारा गया
अकेला पड़ा
तड़पता रहा
तरसता रहा
पर नहीं देखीं किसी ने
मेरी भावनायें।
किसी ने न समझी मेरी व्यथा
मुझे भी है जीने का हक़
मुझे भी मिले सम्मान
मैं भी हूँ इंसान।
मुझे शर्म नहीं कि
मैं कहलाता हूँ किन्नर
सबकी खुशियों का
बन जाता हूँ हिस्सा।
मुझमें समाया है
कुछ पुरुषत्व
कुछ स्त्रीत्व
दोनों का हूँ मिश्रण
मैं हूँ कुछ ख़ास
हाँ, मैं हूँ किन्नर।
— नीरजा मेहता