माँ तुम बड़ी अजीब थी
जब मैं छोटी थी
मुझे परियों की सी फ्रॉक पहना
और बालों में रिबन लगा
आंखों में काजल लगा
प्यार से निहारती थी,
और इस डर से कि कहीं नज़र न लग जाये
मुझे काला टीका लगा चूम लेती थी
उससे भी तुझे तसल्ली नहीं होती थी
नए नए प्रयोग कर मेरी नज़र उतारती थी,
माँ तुम बड़ी अजीब थी।
जब मैं गुड़िया की शादी रचाती थी
तुम अपनी पुरानी ज़री की साड़ी से
गुड़िया के कपड़े बनाती थी,
अपने संदूक से तरह-तरह की चीजें निकाल
गुड्डे की बारात सजाती थी,
और लड्डू कचौड़ी बना
बच्चों के साथ बच्ची बन जाती थी
माँ तुम बड़ी अजीब थी।
परीक्षा के दिनों में
जब मैं रात-रात भर जाग कर पढ़ती
तुम भी कहाँ सोती थी माँ,
कभी पानी, कभी चाय बनाती
और नींद न आने का बहाना कर
वहीं पास में बैठी रहती थी,
पढ़ते-पढ़ते सर दुःखता होगा
ये कह सर में तेल मालिश करती थी,
माँ तुम बड़ी अजीब थी।
मेरी शादी में संभाल कर रखे
तुमने ढेरों कपड़े ,बर्तन और तोहफे निकाले थे
और जब पापा को पड़ी धन की कमी
तुमने बटुए में जमा किये रुपये निकाले थे,
शायद विवाह की तैयारी तुमने
मेरे जन्म लेते ही शुरू कर दी थी
तभी तो विदाई के बाद तुम्हारी
अलमारी खाली दीखी थी,
तुम कभी कोई तोहफा अपने लिए नहीं रखती थी
सब सहेज कर मेरी शादी के लिए रखती जाती थी,
माँ तुम बड़ी अजीब थी।
गर्मी की छुट्टियों में जब मैं ससुराल से आती
तुम ढेरों पकवान बना कर रखती थी
ये भी खा ले, वो भी खा ले
कह दिन रात दुलारती थी,
और जब वापस जाने लगती
बेटी, तू यह भी रख ले, यह भी ले जा कहकर मेरी अटैची भर देती थी,
कुछ खाने का सामान रखा है
कह मुझे टोकरी थमाती थी
और जब मैं टोकरी खोल देखती
उसमें पापड़, बड़ियाँ, अचार के साथ
लड्डू, मठरी,नमकपारे
और न जाने क्या-क्या भर देती थी,
माँ तुम बड़ी अजीब थी।
— नीरजा मेहता