लघुकथा

लघु कथा – लाख़ बहाने

पण्डित भगवानदास जी का भरापूरा परिवार है। परिवार में सात बेटे, बेटों की पत्नीयाँ। पन्द्रह पोते-पोतियों की किलकारियों के संगीत से हर वक्त एक मनोहारी वातावरण घर में बना रहता है। पण्डित जी स्वयं को संसार का सबसे सुखी व्यक्ति अनुभव करते हैं। गाँव में पण्डित जी के परिवार का एक अलग ही रुत्बा है। गाँव की कोई भी छोटी-बड़ी समस्या होती उसके समाधान पण्डित जी की एक अहम भूमिका होती थी। लेकिन उनके मन में एक कसक हमेशा रहती है। वह कसक है, रामदिया बाल्मीकि के केस में दिया गया गलत फैसला। वह फैसला उन्हें अन्दर-अन्दर दीमक की भाँति खोखला किए जा रहा है।
रामदिया बाल्मीकि के बेटे का ब्याह हुआ तो ब्याह के कुछ ही दिन बाद बहु ने मार-पीट का झूठा लांछन लगा कर अपने घर वालों से बाल्मीकि के समस्त परिवार पर दहेज प्रताड़ना का केस दर्ज करवा दिया। पत्नी के इस कृत्य से तैश में आकर रामदिया बाल्मीकि के बेटे ने उसे जम कर पीट दिया। यह मामला पुलिस में न ले जाकर गाँव की पंचायत में ले जाया गया। रामदिया बाल्मीकि को यकीन था पण्डित जी उचित न्याय करेंगें। लेकिन स्त्री की पिटाई का मामला देखते हुए पण्डित जी ने जल्दबाजी में फैसला दे दिया। उन्होंने मामले की गहराई में जाने की ज़हमत नहीं उठाई। रामदिया पण्डित जी के इस अन्याय पर आपत्ति भी ज़ाहिर नहीं कर सका। पहले तो वह पण्डित जी के फैसलों की मिसाल लोगों को देता था, लेकिन इस अन्याय से वह पण्डित जी से रुष्ट हो गया। अब वह दिन-रात पण्डित जी को कोसता रहता था। उनके मरने तक की दुआएँ माँगता था।
एक दिन पण्डित भगवानदास जी प्रातःकालीन सैर पर निकले थे कि कोई ट्रक वाला उन्हें टक्कर मार गया। उन्हें तत्काल अस्पताल पहुँचाया गया। पण्डित जी के साथ हुई दुर्घटना की ख़बर रामदिया बाल्मीकि को भी लगी, उसे अपनी दुआ कबूल होती लग रही थी। पण्डित जी को अन्तिम साँसे लेता देखने के लिए वह भी अस्पताल पहुँच गया। अस्पताल में पण्डित जी का लगभग पूरा परिवार मौजूद था। अत्यधिक खून बहने के कारण पण्डित जी को रक्त की सख्त आवश्यकता थी। डाॅक्टर साहब ने रक्त की आवश्यकता वाली बात परिवार वालों को बतलाई। लेकिन सभी ने कोई न कोई बहाना बनाकर रक्त देने से आनाकानी कर ली।
रामदिया बाल्मीकि भले ही पण्डित जी को अपना शत्रु मान बैठा था, लेकिन उससे पण्डित जी की घायलावस्था देखी नहीं जा रही थी। ऊपर से पण्डित जी के भरे पूरे परिवार में कोई भी रक्त देने को तैयार नहीं था। यह देखकर उसे महसूस हुआ कि पण्डित जी आज इस अवस्था में कितने अकेले हैं। पण्डित जी अक्सर भागवत् कथा के प्रवचन के दौरान मानवता का बौद्ध करवाते थे। रामदिया बाल्मीकि को अपना मानवीय कर्तव्य याद आया। उसने डाॅक्टर साहब के पास जाकर कहा-
‘डाॅक्टर साहब! आप मेरा रक्त ले लीजिए, लेकिन हमारे पण्डित जी को किसी तरह बचा लीजिए।’
डाॅक्टर साहब ने रामदिया का रक्त जाँचा तो वह पण्डित जी के रक्त से मेल नहीं खा रहा था। उन्होंने बाल्मीकि से कहा, ‘आपका रक्त तो पण्डित जी के रक्त से मेल नहीं खा रहा। हम आपका रक्त नहीं ले सकते।’
रामदिया तैश में आ गया, ‘तुम्हें डाॅक्टर किसने बना दिया? तुम्हें नहीं मालूम रक्त के बदले में रक्त दिया जा सकता है। आपके यहाँ रक्त कोष में तो पण्डित जी के रक्त से मेल खाता रक्त होगा? जितना चाहिए उतना मेरा रक्त ले लो और अपने यहाँ से पण्डित जी को रक्त चढ़ा दो।’
डाॅक्टर साहब, ‘आप तैश में ना आए। मैं तो आपके मन की स्थिति जाँच रहा था। जब मरीज़ के परिवार वाले रक्त देने में आनाकानी कर रहे थे तो मैंने सोचा कहीं आप भी सिर्फ जोश-जोश में हाँमी तो नहीं भर रहे। आईए अपना रक्त दे दीजिए। उधर हम मरीज़ को रक्त चढ़ा देते हैं।’
पण्डित जी के लिए रक्तदान कर रामदिया बाल्मीकि आत्मविभोर हो रहा था। पण्डित जी के परिवार के सदस्य उससे नजरें चुरा रहे थे।

विजय ‘विभोर’
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