आसूँ
ये जो आसूं हैं न, बड़े अजीब होते हैं,
जब होता है दर्द तब भी रोते हैं।
जब होती है ख़ुशी बहुत, ये तब भी बहते हैं,
ये जो आसूं हैं न बड़े अजीब होते हैं।
ये तब भी बरसते हैं जब खेतों में बादल धोखा दे जाते हैं,
और बरसात की बूँदों की आड़ में खुद को छिपा जाते हैं,
झूलकर किसी पेड़ की डाली से,
कर्ज केवल इन आसुओं का पलकों में छोड़ जाते हैं,
ये जो आसूं हैं न बड़े अजीब होते हैं।
समझ नहीं आता कि बेटी की बिदाई में,
इन आँखों की गहराई में, जो भर-भर नयन से आते हैं,
जाने कौन से आसूं ये कहलाते हैं,
ये जो आसूं हैं न कई सवाल छोड़ जाते हैं,
मैं रोता हूँ ये तब भी आते हैं,
मैं जब हँसता हूँ ये तब भी पलकें भीगा जाते हैं,
ये जो आसूं हैं न बड़े अजीब होते हैं।
बन नीर ये नदियों का, व्यथा अपनी सुनाते हैं,
सूखे ताल के गाल पर,
कुछ बूंदे ही रह जाते हैं,
ये जो आसूं हैं न बड़े अजीब होते हैं।
ये कफन शहीद का भी भिगोते हैं,
ये सूखे खेतों में भी बरस जाते हैं,
पता नहीं ये कैसा दोगलापन निभाते हैं,
क्यों ये सिर्फ हमेशा गरीब के ही हिस्से में आते हैं,
ये जो आसूँ हैं न बड़े अजीब होते हैं।
— रवि किशोर