गीत “सिमटकर जी रही दुनिया”
नज़ारों में भरा ग़म है, बहारों में नहीं दम है,
फिजाएँ भी बहुत नम हैं, सितारों में भरा तम है
हसीं दुनिया बनाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
नहीं आभास रिश्तों का, नहीं एहसास नातों का
किसी को आदमी की है, नहीं विश्वास बातों का
बसेरे को बसाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
लुभाती गाँव की गोरी, सिसकता प्यार भगिनी का
सुहाती अब नहीं लोरी, मिटा उपकार जननी का
सरल उपहार पाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
नहीं गुणवान बनने की, ललक धनवान बनने की
बुजुर्गों की हिदायत को, जरूरत क्या समझने की
वतन में अमन लाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
भटककर जी रही दुनिया, सिमटकर जी रही दुनिया
सभी को चाहिएँ बेटे, सिसककर जी रही मुनिया
चहक ग़ुलशन में लाने की, हमें फुरसत नहीं मिलती।
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(ड़ॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)