गज़ल
ये ज़िंदगी बेमकसद सा इक सफर निकला,
जिसे समझा था आदमी वो पत्थर निकला,
मैं करता भी अगर किससे शिकायत करता,
मेरा कातिल तो मेरा अपना चारागर निकला,
मुझे दुश्मन की दुश्मनी का गिला जाता रहा,
जब मेरे दोस्त की आस्तीन से खंजर निकला,
बहा के ले गया इक पल में सारे गम मेरे,
माँ की आँख का आँसू तो समंदर निकला,
मुझे पता ही ना था रब दिलों में बसता है,
मैं ढूँढता था किधर और ये किधर निकला,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।