ग़ज़ल
फूल में अब ख़ास क्या, जो रंग गुलसन में नहीं
रूप का अम्बार सजनी का जो’ दामन में नहीं |
प्रेम पर परवान की कीमत, अगर घर तोड़ना
शमअ रौशन भी कहाँ, जब रश्मि खिरमन में नहीं |
रिश्तों’ का वो जख्म को सिलना, बढ़ाना दर्द और
दर्द का वो जायका क्या ज़ख्में’ सोजन में नहीं ?
मौजे’ मय बर्बाद मुझको कर दिया है इस कदर
खो गया सब हौसला, कोई लहर मन में नहीं |
वो जवानी की रवानी अब कहाँ है जीस्त में
खूं निचोड़ा वक्त ने सब, जोर अब तन में नहीं |
पेड़ पौधे काटकर बंजर किया धरती तमाम
हर तरफ मदहोश घर, तुलसी भी’ आँगन में नही |
मेघ का बदला रवैया, अब ठिकाना लापता
सुख गयी धरती यहाँ, बारिश तो’ सावन में नहीं |
यूँ ज़माना बदला’ ‘काली’, हो गया दिल कटु बहुत
वायु उत्तेजित है’, ठंडक अब तो’ चन्दन में नहीं |
कालीपद ‘प्रसाद’