सावन फिर से अइयो रे
सावन का महीना दस्तक दे चुका है। चहुंओर फैली हरितिमा की चादर ने धरती की कोख को हरा-भरा कर दिया है। गांव में जगह-जगह पेड़ की टहनियों पर झूलों का लुफ्त उठाती लड़कियों को देख विश्वास सुदृढ़ हो गया सावन सच में आ गया है। खिलते फूलों की महक, बहती तरंगिनी का कलकल नाद, घनघोर काली घटाओं को देखकर नृत्य करता मयूर, बाग-बगीचों की बयार सबकुछ सावन अपने साथ ले आया है। नायक और नायिका के मनोभावों में प्रेम तरंगों का संचार अनायास ही दृष्टिपात हो रहा है। विरह वेदना में तपती सजनी साजन से मिलने के लिए आतुर और अतिउत्साही है। आखिर सावन का मतलब ही है प्यार का महीना। कोई आखिर कैसे प्रकृति के यौवन को देखकर मदहोश नहीं होगा भला ! पवनो का शोर, पक्षियों का कलरव और आकाश में छाये मेघ अपनी स्नेही बूंदों का झरना धरातल पर बरसायेंगे तो हर कोई अल्हड़ और मस्ताने की तरह झूम उठेगा।
बेशक ! मौसम मानव को अत्यधिक प्रभावित करता है। जहां ग्रीष्म में अलगाव दिखता है तो सावन और शीत में वहीं अलगाव लगाव में परिवर्तित हो जाता है। जहां तक सावन-भादो की बात करे तो एक अजीब-सी आकर्षण शक्ति है इसमें। जिसके जादू से हर कोई इसके वश में आ जाता है। गर्मी के तीखे तेवर से व्यथित लोगों को झमाझम बारिश की बूंदे शांत कर देती है। सर्वत्र शीतलता का स्पदंन होने लगता है। आखिर प्रकृति इस समय अपने चरमोत्कर्ष अवस्था में होती है। मानव मन तो आदिकाल से ही हरियाली और हरा देखने के लिए बेचैन रहा है। प्रकृति की अनुपम छटायें भला किसे नहीं भायेगी ? सावन के इस माह में मनुष्य और प्रकृति के मध्य की दूरी कम हो जाती है। मानव प्रकृति के अधीन शरणागत हो जाता है। वैसे भी मानव प्रकृति के अधीन ही तो रहा है। शायद ! मशीनी युग ने इस बात में भी विरोधाभास उत्पन्न कर दिया है।
सावन को बरसते देख भूली-बिसरी स्मृतियों का कारवां मानस पटल पर पुर्नजीवित हो उठता है। शिव पर बेलपत्र चढाती और दुग्धाभिषेक करती नवयुवती को देख लगता है जैसे सावन केवल शिव को ही प्रसन्न करने का महीना है। शिव के प्रसन्न होने से इन नवयुवतियों को मनचाह पति मिलने की बात समाज में सदियों से होती आयी है। इसमें शिव को केवल स्वार्थ के लिए अपनाया जा रहा है। मानव का चातुर्य भगवान को भी नहीं छोड़ता। सावन को लेकर कई महान लोगों ने अपने मत रखे है। ललित निबंध तो मानो सावन के लिए ही बने है। या सावन सिर्फ ललित निबंधों के लिए ही दस्तक देता है। जो भी हो। इस सावन ने पशु-पक्षी, मानव के साथ संसारिक जगत के हर स्तंभ और घटक पर अपना असर छोड़ा है। फिल्म जगत का गढ़ बॉलीवुड कभी सावन की प्रशंसा करते नहीं थका है। सावन को खुश करने और सावन से खुश होकर कितने और कैसे-कैसे गीत लिखे गये – बदरा और भी बरसे काहे जियरा तरसे, सावन के झूलों ने हमको बुलाया, कच्ची नीम की निमकौरी सावन फिर से अइयो रे, सावन का महीना पवन करे शोर जियरा झूमे ऐसे जैसे वन मा नाचे मोर, तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए, सावन का महीना आया है घटा से बरसा है पानी जैसे लोकप्रिय गीत आज भी जनमानस में अपनी जगह बनाये हुए है।
यह सच है कि घाघ कवि की कहावतों वाला सावन आज कई दिख नहीं रहा है। अब भुना चबेना और सत्तूहरदोई और सेमइयों की मिठास सावन में नहीं रही। इंटरनेट और आधुनिकता ने सावन का असली आनंद गायब कर दिया है। वन और वृक्षों का इस गति से सफाया होता गया कि सावन की हरियाली नदारद होती गयी। भगवान शिव को भी जंगल की गुफाओं से लाकर अट्टालिकाओं के गृहगर्भ में शिफ्ट कर दिया गया। लगता है रुठ गया है सावन। इसलिए भी कि जिन अंग्रेजों की तपती जुल्म की गर्मी से राहत दिलवाकर शहीदों ने भारतवर्ष में सावन लाया था, उस सावन का तथाकथित जनसेवकों ने सत्यानाश कर दिया। अब भारतीय जनता के भाग्य में केवल तपना ही लिखा है।
— देवेंद्रराज सुथार