भाषा-साहित्य

व्यंग्य

व्यंग्य में इतनी आपाधापी,अंतर्विरोध क्यो है ?हम आगे बढ़ने के बजाय कदमताल क्यों करने लगते हैं। ऐसा क्यों है ?
ऐसा व्यंग्य में ही क्यों है ? आखिर व्यंग्य का सही विधान क्या है ? या हर व्यंग्यकार का अपना निजी विधान ही व्यंग्य का विधान है ।जिसमें चाटुकारिता का महत्वपूर्ण स्थान है ! सौ दो सौ चाटुकारों के बीच खुद को व्यंग्यकार के रूप में स्थापित भर कर लेना ही शायद व्यंग्य की कसौटी है ! या फिर व्यंग्य की कसौटी किताबों से आंके जाने का कोई विधान होगा ! मान लो व्यंग्यकार की 80 किताबें हैं, तो उस व्यंग्यकार का कद व्यंग्य की दुनिया में 80 गुना माना जायेगा ।20 किताब वालों का बीस गुना ,चार किताब वालों का चार गुना और जिसकी किताब नहीं है ,वो कहीं का नहीं माना जायेगा । व्यंग्यकार तो बहुत दूर की बात है ! माना जायेगा कि उसपे धतूरे के बीज़ का असर है सो यदा कदा सनकता रहता है । बिना किताब और बिना सम्मान का कैसा व्यंग्यकार !

मैं सोचती हूँ आखिर व्यंग्य के शिल्प की सोचूं तो मुझे किस दिशा में जाना चाहिए , लिखूं तो किस के शिल्प का अनुकरण करूँ !क्या व्यंग्य में कोई मान्यताएं निर्धारित की गई हैं ?व्यंग्य बस चल रहा है, चला जा रहा व्यंग्य! व्यंग्य न होकर सावन की बदरिया हुआ जा रहा है जहाँ तहां जैसे चाहा बरस लिया ।

चूँकि ये विद्या आसान नहीं है इसलिए समय समय पर इसमें विरोध,विवाद भी मुखरित होते रहे हैं,इसके शिल्प और शैली को लेकर। जो व्यक्ति जिस तरह से लिख रहा है उसी को व्यंग्य की शैली मनवाने पर आमादा है । फर्ज कीजिये मुझे व्यंग्य में हास्य के साथ गहरी चोट करना नहीं आता मगर आपको आता है तो ये मेरा साहित्यिक कर्तव्य है कि मैं व्यंग्य में हास्य को सिरे से ही ख़ारिज कर दूँ।मेरे अच्छे व्यंग्यकार होने का सबसे पहला उसूल है ये ,कि मैं जो लिखूं जिस शिल्प में लिखूं उसी को ही व्यंग्य का सही शिल्प साबित कर सकूँ ,तभी मैं व्यंग्य की अच्छी लेखक हूँ अन्यथा नहीं।

देखा जाय तो यूँ प्रतीत होता है जैसे व्यंग्य का सिंहासन ऐसा डूबता हुआ सिंहासन है ,जिसे सबने कस के पकड़ रखा है, मतलब साथी हाथ बढ़ाना! तू मेरे रस्ते में मत आना और मुझे तेरे रस्ते से नहीं जाना
सभी एक दूसरे को मजबूती से कंधे से कन्धा दिए हुए हैं कि कहीं सिंहासन से व्यंग्य कपकपा के गिर न जाये मगर सिंहासन पे व्यंग्य भी तो हो!!

वर्तमान में व्यंग्य की भी एक परिधि है व्यंग्य की ये परिधि बहुत मजबूत है। इस घेरे को तोड़ना या तोड़ने की सोचने से भी महापाप लगता है ,जो भी ऐसा करता है उसे व्यंग्य दुनिया की नर्क की सजा भोगनी पड़ती है ,उसका कहीं नाम ओ निशान नहीं होता ।व्यंग्य कुएं के मेढक की तरह अपनी ही परिधि में छई छप -छई, छपाक -छई ,कर रहा है । व्यंग्य की इस परिधि में ही गंगा ,यमुना गंगासागर हैं,जो कुछ है वो सब परिधि भीतर !!

व्यंग्य में अधिकाशतः व्यंग्य के इतिहासकार हैं ,व्यंग्य के कथाकार हैं ।ये ही लोग असल में व्यंग्य के पैरोकार हैं। व्यंग्य का पेड़ तो बहुत हरा भरा है लेकिन व्यंग्य की जड़ें खोखली हैं !व्यंग्य के ललित – सुरभि सम्मानों में व्यंग्यकार इतना विस्मित है कि व्यंग्य की जड़ों से ही अविस्मृत सा हो चला है ।

वर्तमान समय में व्यंग्य अपने लक्ष्य से उदासीन और विवाद में स्फूर्तिवान है । व्यंग्य न सिर्फ दिशा भ्रमित है बल्कि विषय भ्रमित भी है व्यंग्य सिर्फ कुछ विषयों तक ही चक्कर काट रहा है ।अब व्यंग्य के पास दूरगामी दृष्टि ही नहीं है जहाँ वो खुद को स्थापित कर सके।

जो ताजगी जो स्थिरता जो तर्क विवाद में मूर्तिमान है वे व्यंग्य में कहाँ ! इसी के चलते न सिर्फ व्यंग्य की परिभाषा बदली है बल्कि प्रकार भी ।

वर्तमान में व्यंग्य के अधिकाधिक प्रकार देखने को मिलते हैं ।व्यंग्य अब व्यक्तिपरक है । जैसा चरित्र वैसा चित्र और वैसा ही व्यंग्य !व्यक्तिपरक व्यंग्य में व्यक्ति ही व्यंग्य की मूल वशेषता है। इसीलिए व्यंग्य में कथ्य नदारत और कथाकार उपस्थित है,कथाकार के साथ टीकाकार भी उपस्थित है ,टीकाकार के साथ एक सभागार भी उपस्थित है ,सभगार के साथ साहित्यिक सम्मान भी उपस्थित है मगर व्यंग्य फिर भी अनुपस्थित है ।व्यंग्य की प्रधानता अब अकाट्य कथ्य से हटकर व्यक्तिगत हो चली है । व्यंग्य को अब व्यंग्यकार रूपी प्रयोगशाला से गुजरना होता है। व्यंग्यकार ही व्यंग्य की मुख्य कसौटी है न कि कुरीतियां ,सामाजिक बुराइयां । सामाजिक बुराइयों के भेद व्यंग्य के मतभेद हो चले हैं । इन्हीं मतभेदों और मतिभेदों की शैया पर व्यंग्य व्यग्रता से सांसें ले रहा है।

मतिभेदों के चलते हुए व्यंग्य ये ही नहीं समझ पा रहा है कि उसका मूल स्वरूप आखिर है क्या ! उसका कर्तव्य और महत्त्व सिर्फ अखबारों के साहित्यिक पन्ने तक है । इसीलिए व्यंग्य की मंजिल अखवार है जिस तरह फकीर को घर !उसी तरह व्यंग्य के लिए अख़बार है। कोई भी रचना अख़बार में आते ही व्यंग्य हो जाती है । नश्तर चुभा जाती है ये ही रचना का तारणहार है ये जो अख़बार है।
अद्भुत योग है कि…………………..
व्यंग्य एकाएक चाशनी से भरपूर सराबोर हो गए हैं ।व्यंग्य अब अपनी शैली से दिमाग को सुन्न नहीं करता! बल्कि व्यंग्य की चाशनी अब मिठास घोलने का काम कर रही है। जल्दी ही साहित्यिक दुनिया दो प्रकार के व्यंग्य से भरी दिखाई देगी ,मीठे के शौकीनों के लिए मीठे व्यंग्य और तीखे के शौकीनों के लिए तीखे व्यंग्य ।
मीठे में भी जलेबी व्यंग्य से लेकर रस मलाई तक की विविधता है, व्यंग्य में ।
जलेबी व्यंग्य में लेखक एक ही बात को गोल गोल घुमाता रहता है ।शुरू से आखिरी तक। उसे खुद पता नहीं होता कि वो क्या कह रहा है ,क्या कहना चाहता है ,यहां तक कि क्यों कह रहा है भाई !व्यंग्यकार है कोई मामूली बात है …..
रस मलाई व्यंग्य वे होते हैं जिन्हें चाशनी में डुबो डुबो कर भरपूर रस दार बनाया जाता है ।ऐसे व्यंग्य को व्यंग्य कहलवाने के लिए फिर उस पर मलाई मक्खन की एक मोटी परत चढ़ाई जाती है ।अगर मक्खन की परत ठीक ठाक चढ़ गई तो किसी भी वरिष्ठ सभा में वो व्यंग्य आसानी से व्यंग्य श्रेणी में चला जाता है। वंदा एकाएक खुद को बड़े बड़े व्यंग्यकारों की श्रेणी खड़ा पाकर इंद्रदेव से कम नहीं समझता ।

तीखे व्यंग्य सब को हज़म नहीं होते ।इसलिए अक्सर लोगों को एसिडिटी की शिकायत हो जाती है ।वंदा व्यंग्यकार होने का सपना दिल में दबाए ही रह जाता है । दुनिया की आँख की किरकिरी बनता है वो अलग।
व्यंग्य में अंतर्विरोध की तो बात जो है सो है ,हकीक़त में व्यंग्य में विरोध ही विरोध है । कहीं छोटा विरोध है, कहीं बड़ा विरोध है ,मगर है जरूर। व्यंग्य की नगरी में किसी के भी प्रवेश कर भर लेने से व्यंग्य नगर का सिंहासन डोलने लगता है।बिजलियाँ चमकने लगती हैं, बादलों की घनघोर गर्जना सुनाई देने लगती है । बड़ी बड़ी अप्सराओं को व्यंग्यकार की तपस्या भंग करने के लिए भेजा जाता है । और बेचारे व्यंग्यकार की व्यंग्य की तपस्या इस तरह कभी कभी भंग भी हो जाती है और व्यंग्य नगर का सिंहासन स्थिर हो जाता है।

बेचारे नये नवेले व्यंग्यकार तो व्यंग्य की देहली छूकर ही भाग जाते हैं, इसलिए की पकड़े गये तो कोई ये न पूछ बैठे की व्यंग्य की तलवार तुमने उठाने की हिम्मत कैसे की । खैर ! समझें तो व्यंग्य का ये मध्यान काल है ।व्यंग्य की गति कुछ रुकी सी है जैसे कि व्यंग्य थक गया हो । मगर व्यंग्य के सूरज पर कब तक ग्रहण रहेगा ! सूर्योदय तो होना ही है ।जिस दिन व्यंग्य से स्वार्थ का ग्रहण हट जायेगा अँधेरा छट जायेगा ।व्यंग्य के विरोध अंतर्विरोध के बीच फिर भी सामाजिक,राजनैतिक कुरीतियों पर जो भरपूर प्रहार करे ,बिना लाभ और हानि के वो ही सफल व्यंग्यकार है।