यादें बचपन की
जब जब लोगों के हुजूम में अकेलापन चुभने लगता है,
तब बीते हुए उन लम्हों की यादों में मन डूबने लगता है।
याद आने लगता है बचपन का वो मस्ती भरा हुआ दौर,
शीशम के डाल पर डले झूले पर मन झूलने लगता है।
साईकिल के टायर की दौड़ याद आती है पहले ही पल,
दूसरे ही पल में मन जोहड़ में नहाकर सूखने लगता है।
कभी मिट्टी के खिलौने कभी माचिश के ताश बनाता है,
देख लगे आम जामुन अपने आप मन रुकने लगता है।
आकाशवाणी के रोहतक व दिल्ली चैनल की रागनियाँ,
साथ में टेलीविजन का लकड़ी का स्टर खुलने लगता है।
कभी मोटे फ्रेम का दादी का चश्मा लगाता है मन मेरा,
कभी मन गुड़गुड़ा कर हुक्का दादा का छुपने लगता है।
कभी कोने में रखे मिट्टी के चूल्हे से राख निकालता है,
कभी दादी के चरखे के सूत सा यादों से जुड़ने लगता है।
कभी बनाता है मोर चंदों से गाय भैंसों बैलों की माला,
कभी हरियाली देखने को मन खेतों में घूमने लगता है।
सच में हर जगह सुकून था, हर किसी से अपनापन था,
अक्सर मन उन सुनहरी यादों में खोकर उड़ने लगता है।
आनंद मिलता है बीते लम्हों की यादों की भूल भुलैया में,
वापिस लौटते ही यादों से सुलक्षणा मन दुखने लगता है।
©® डॉ सुलक्षणा अहलावत