ग़ज़ल
हो अच्छा वक्त तो दुनिया हसीं मालूम होती है,
मुसीबत में मगर ये अजनबी मालूम होती है
गुलामी करते देखा अक्ल को जब से तवंगर की,
भैंस उस दिन से ही हमको बड़ी मालूम होती है
चाँद भी घूमता रहता है मेरे साथ रातों को,
इसकी फितरत में भी आवारगी मालूम होती है
छुड़ाती जा रही है रोज़ दामन मुझसे अपना उम्र,
ये भी मेरी तरह ही मतलबी मालूम होती है
ना आया है कोई ना है किसी के आने की उम्मीद,
बड़ी मायूस सी अब ज़िंदगी मालूम होती है
नज़र ना आएगा रस्ता तब रूकने की सोचेंगे,
चलते हैं जहां तक रोशनी मालूम होती है
हंस दाने चुगेंगे और कौए खाएंगे मोती,
कहावत ये आज बिल्कुल सही मालूम होती है
महल हों संगेमरमर के या हीरे मोतियों के ढेर,
माँ के सामने हर शै छोटी मालूम होती है
— भरत मल्होत्रा