कविता : कभी था बरगद का पेड़ वहाँ
कभी था बरगद का पेड़ वहाँ
लगता जैसे काँपती सूरज की तपन
बच्चें-बुढ़े और युवाओंकी मण्डली
जमाये रहती थीं चौपाल वहाँ
सुबह हो या फिर शाम
और देर रात तक
जमे रहते थे लोग जहाँ
करते गपशप और वार्तालाप
कभी था बरगद का पेड़ वहाँ
जिसके नीचे मौसी की दुकान
चाय पीते खाते चने परमल
आते हैं याद वे दिन
समय के क्रूर हाथों
दे दी गई बरगद की बलि
और तन गया वहाँ कांक्रीट का जंगल
अब नहीं वहां बरगद की छांव
सूरज करता अट्टहास वहाँ
कैसे बचेंगे उसकी तपन से
आते हैं याद वे दिन जब
कभी था बरगद का पेड़ वहाँ।
छूट गये हैं कई संगी-साथी
बिछुड़ गये हैं अपने सारे
लगता है भला था अपना बचपन
और बेफिक्री की वह जिन्दगी
अब तो रह गई हैं यादे ही शेष
और हम भी रह जायेंगे यादों में
ठीक उस बरगद की तरह।।
— डॉ प्रदीप उपाध्याय