लघुकथा : समाज की मनोदशा
आज गीता एक बार फिर गर्भाव्स्था की असहनीय पीडा से तडप रही थी कराह रही थी, वहीं उसके दर्द को समझने से परे बाहर कई अटकलें लगाई जा रही हैं। सभी के मन में बस एक ही आस बंधी है “कुलदीपक” की।
अम्मा बर्तन धोकर धोती के पल्लू से हाथ पोंछती हुई, तैश में बोली। अरे…..”अबके तुम देखना बहुरिया के लल्ला ही होगा।” बूढी दादी भला कहाँ पीछे रहने वाली थी, “बिदकती हुई बोली…..”हाँ अउर का काहै नाहीं…… हम इतनी पूजा जो करवाये हैं, कितना तो खर्चा ही किये हैं, व्यर्थ ना जावेगी भरोसा है हमका प्रभु पर, देखना अबके तो लल्ला ही होगा।”
बगल में खाट पर बूढे बाबा चुपचाप पसरे हैं। वह अपना सा मुँह लिये कभी बिटवा को ताकते तो कभी बूढी को ताडते। जैसे बूढी की बात पर हामीं भर रहे हों। बढकी बिटिया रानी खाट पर चुपचाप पसरी है। एक तरफ माँ की असहनीय पीडा से भरी चीख जिसका अहसास वहाँ पर केवल उसे ही है। वह सबकी बातों पर कैन लगाए बैठी है। कभी दादी का मुँह ताकती,कभी बूढी अम्मां का तो कभी बाबा का। उसकी समझ शायद उस जैसी छोटी है अभी, इन दकियानूसी ख्यालातों को समझने के लिए।
बिटवा राघव कई दुविधाओं से घिरा हुआ है। दादी को पोते की ललक, अम्मा को लल्ला की आस। अँतर्मन के झँझावतों से जूझता हुआ एक आस लिये दरवाजे पर कान लगभग द्वार से सटाते हुए नवजन्मे शिशु की आवाज समझने का प्रयत्न करता है।” लल्ला होगा या लल्ली…?” “कोई फर्क नहीं जान पडता।” तभी बूढी दाई जो पहले से ही यह जानती थी कि पहले भी बेटी ही है। कमरे के द्वार खोलकर लगभग उसी निराशाजनक भाव में परदे की ओट में खडी धीरे से बुदबुदाई। “लल्ली हुई है अबके भी।” बिटवा सन्न जैसे साँप सूंघ गया हो। अपना सा मुँह लिये द्वार से हताश लौट आता है। चेहरे पर उदासीन भाव, ढुलकते शरीर, लडखडाते कदम ऐसे पड रहे थे, मानों बिटिया जन्म के असहनीय आघात को सहने में है अक्षम। “वह सर पकड कर जमींन पर खटिया के पास वहीं पसर गया।” जहाँ अटकलों को कुछ तो विराम दे ही गई थी, बिटवा की चुप्पी। बूढी अम्मां–” प्रश्नचित्त नजरों से बिटवा के चेहरे के हाव -भाव देख हाथ झँझोडती हुई बोली”…..”कै हुआ रे…..?”
” बिटवा का मौन सब कुछ बाँच गया था।”
— लक्ष्मी थपलियाल
देहरादून उत्तराखंड