तुम्हारी बज्म में इक शाम तय है
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तुम्हारी बज्म में इक शाम तय है ।
फ़िजा में इश्क़ का अंजाम तय है ।।
सफाई से मिलेगा क्या हमे अब ।
हमें मालूम है इल्ज़ाम तय है ।।
भटकने की जरूरत क्या है यारों ।
फ़ना के बाद भी तो धाम तय है ।।
गरीबों का उड़ा बैठे हो चारा ।
तुम्हारे हक़ में कब आराम तय है ।।
हमारी उम्र का है तज्रिबा यह ।
शराफ़त में बड़ा संग्राम तय है ।।
नई कुर्सी पे वो बैठा है जब से ।
बताते लोग हैं कोहराम तय है ।।
अगर मौला ने बख़्सी जिंदगी यह ।
हमारे हाथ का भी काम तय है ।।
वो हाकिम की खुशामद में लगा था।
उसी का आज फिर इनअाम तय है ।।
हथेली की लकीरों को जरा पढ ।
मेरी किस्मत में तेरा नाम तय है ।।
निभाओगे कहाँ तक साथ मेरा ।
तुम्हारे वक्त का तो दाम तय है ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित