गजल
सरकारी फाईलें है
कि बिना नोट के हिलती नहीं
बेचारे गरीब आदमी की
दाल है कि कभी गलती नहीं
खाने वालों के आगे
ईमानदारी ज्यादा चलती नहीं
हौंसलें उनके बड़े बुलंद है
सरकार है कि कुछ करती नहीं
आदमी परेशां यहां ता-उम्र
समस्यायें है कि मिटती नहीं
प्रसिद्ध तो बहुत है “प्रेमचंद” पर‚
बिन दियासलाई आग जलती नहीं
अर्थी को कंधा नसीब नहीं यहां
पत्थर के पुतलों में संवेदना जगती नहीं
न्याय बना कोठे की पाजेब यारों !
कड़वी सच्चाई है कि हजम होती नहीं
लूटेरो का लूटतंत्र है लूट रहा है
पर ये बेचैनी पीड़ा बन मसलती नहीं