धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धन से मनुष्य की तृप्ति नहीं होती

ओ३म्

आजकल संसार के सभी व अधिकांश मनुष्य धन की ओर भाग रहे हैं। संसार की बात न कर अपने देश भारत की ही बात करें तो यह बात 99.9 प्रतिशत सत्य प्रतीत होती है। इसी कारण तो अतीत में देश में घोटाले पर घोटाले होते रहे। आज भी कई राजनीतिक नेताओं के घोटोलों की चर्चा होती रहती है व हो रही है। अनेक सरकारी विभागों में रिश्वत चलती है। नई सरकार के आने के बाद भी उस पर कहीं असर पड़ा हो, दिखाई नहीं देता। ऐसा लगता है कि यह लाइलाज रोग है। दूसरी ओर कठोपनिषद के ऋषि कहते हैं कि वित्तेन तर्पणीयों मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्वा।’ अर्थात् मनुष्य धन व ऐश्वयों आदि की प्राप्ति व उनके भोग से तृप्त नहीं हो सकता। यह शब्द कठोपनिषद में बालक नचिकेता द्वारा यम द्वारा उन्हें प्रलोभन देने के उत्तर में कहे हैं। वैदिक सिद्धान्त भी इस बात को सत्य स्वीकार करता है कि केवल धन मात्र की प्राप्ति हो जाने से ही मनुष्य तृप्त व सन्तुष्ट नहीं हो सकता। आज देश में अनेकानेक करोड़पति, अरबपति, खरबपति आदि महानुभाव विद्यमान हैं। इनके पास अकूत धन हैं। क्या यह सन्तुष्ट व तृप्त हैं? ऐसा नहीं हैं। इन सभी को पहली चिन्ता तो अपने बिजनेस में वृद्धि वा उसकी सफलता की है। अपने स्वास्थ्य व बढ़ती उम्र से भी सभी चिन्तित होते हैं। कालान्तर में अपनी व परिवारजनों की मृत्यु का भी इनको भय है। महर्षि दयानन्द को भी इस बात की फिक्र रहती होगी कि उन्हें वेदभाष्य के काम को पूरा करना है। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, परतन्त्रता, सामाजिक सद्भाव, फलित ज्योतिष, दलितोद्धार, बाल विवाह उन्मूलन जैसी अनेकानेक समस्यायें उन्हें विचलित करती थी। वह इन्हें समाप्त करना चाहते थे, परन्तु लोग अपने स्वार्थों के कारण उनके साथ आने को तैयार नहीं थे। यह तो एक विद्वान, ऋषि व योगी होने पर उनकी स्थिति थी। लेकिन धन के बारे में तो सत्य है कि यह हमें रोटी, कपड़ा व मकान तो दे सकता है परन्तु पैसे से मन का सुख व शान्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। पैसा खर्च करके अपराधियों व अन्य विडम्बनाओं से बचा नहीं जा सकता। अतः वित्त से मनुष्य की तृप्ति नहीं हो सकती, यह सिद्धान्त सत्य पाया जाता है। यह भी विचार करना आवश्यक है कि भले ही पैसे से मनुष्य की तृप्ति न हो परन्तु एक सीमा तक तो मनुष्य के पास धन होना ही चाहिये जिससे वह भोजन, आश्रय, शिक्षा, चिकित्सा व सुरक्षा प्राप्त कर सके। इससे अधिक धन किस काम का है? मनुष्य अपना सारा जीवन धनोपार्जन में लगा देता है परन्तु इस चक्कर में वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सहित परोपकार, ईश्वर प्राप्ति व यज्ञ आदि कार्यों से दूर होने के कारण बहुत कुछ खो देता है जिसकी आपूर्ति अनेक जन्म लेकर भी सम्भव प्रतीत नहीं होती। यह भी आश्चर्य है कि जिस धन को मनुष्य ने रात-दिन परिश्रम करके कमाया होता है, वह मृत्यु के समय साथ नहीं जाता, यहीं रह जाता है और वह पुत्रों व पत्नी आदि में कलह का कारण भी बनता है।

सन्तुलित जीवन क्या है? सन्तुलित जीवन में मनुष्य के पास आवश्यकतानुसार धन होना चाहिये। इसके लिए मनुष्य को प्रयत्न भी करना है। परन्तु सारा प्रयत्न धन के लिए ही न होकर स्वाध्याय, तप, ईश्वर का ध्यान व चिन्तन, आसन व प्राणायाम सहित देव यज्ञ वा पंचमहायज्ञों के लिए भी समय देना आवश्यक है जिससे इनसे होने वाले लाभों से मनुष्य वंचित न हो। जो लोग जीवन में आध्यात्म को प्रथम स्थान पर रखकर धर्मानुसार धनोपार्जन करते हैं वह मनुष्य वस्तुतः धन्य हैं। ऐसे महान् लोगों में राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, श्रद्धानन्द जी आदि अनेक नाम इतिहास में मिलते हैं। इन लोगों का जीवन आदर्श जीवन था। इन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किये उससे शिक्षा लेकर आज की परिस्थितियों के अनुसार मनुष्यों को अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निश्चय करना चाहिये। इस कार्य में सहायता के लिए मनुष्यों को एक बार सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के साहित्य का अध्ययन कर लेना चाहिये जिससे अपने कार्य, लक्ष्य व व्यवसाय आदि के निर्धारण में सहायता ली जा सकती है। ऐसा कार्य व व्यवसाय कदापि नहीं करना चाहिये जिससे मनुष्य जीवन अशुभ कर्मों को करने वाला बने। मांस, शराब, अण्डे, मछली, सट्टा, चोर बजारी, झूठ का कारोबार, धोखाधड़ी, मिलावट, उत्कोच से लाभ प्राप्त करना जैसे कार्य कदापि नहीं करने चाहिये। मनुष्य शिक्षा प्राप्त कर योग्य शिक्षक, लेक्चरर, प्रोफेसर, चिकित्सक, इंजीनियर, कृषक, व्यापारी, वैज्ञानिक आदि के कार्य कर सकता है जिससे वह सम्पन्न जीवन व्यतीत कर सके। इनके साथ मनुष्य वैदिक धर्म का पालन भी कर सकता है जिससे अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। अतः कर्मों का निर्धारण करते हुए उनके शुभ व अशुभ होने पर विचार कर लेना चाहिये। वेद व वैदिक साहित्य भी मनुष्यों के दैनिक स्वाध्याय में सम्मिलित होने चाहिये। वेद विरुद्ध ग्रन्थों का त्याग ही जीवन को ऊपर उठाता है।

वित्त, अर्थ, धन, ऐश्वर्य एवं सांसारिक भोगों से मनुष्यों की तृप्ति कभी नहीं होती अपितु इन कार्यों से तो मनुष्य की आयु का ह्रास होना ही सम्भव प्रतीत होता है। यौगिक जीवन ही श्रेयस्कर जीवन है जिसमें धर्म मार्ग पर चलकर देश व समाज हित के सभी कार्यों को मनुष्य करता है। अतः मनुष्य को वित्त से जीवन को होने वाले लाभ व हानि पर धर्माधर्म को को केन्द्र में रखकर विचार करना चाहिये। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के चिन्तन के साथ कर्म-फल व्यवस्था और परजन्म पर भी विचार करना चाहिये जिससे हमारा भावी जीवन सुखमय व निरापद हो। यदि देश की बात करें तो देश के अधिकांश लोग आर्थिक अभावों में ही जीवन व्यतीत करते हैं। इसका एक कारण देश के अमीर वा धनवान लोग हैं। देश का अधिकांश धन कुछ ही लोगों के यहां एकत्रित हो जाने से यह स्थिति उत्पन्न हुई है। इसका उपाय वैदिक धर्म में ‘‘दान” को बताया गया है। मनुष्य को चाहिये कि उसके पास यदि आवश्यकता से अधिक धन है तो भी और नहीं है तो भी जितना वह उपार्जित करता है, उसका शतांश तो वेद विद्या की उन्नति, उसके प्रचार-प्रसार सहित वैदिक धर्म की उन्नति के लिए सत्पुरुषों व सुपात्रों को अवश्य दान देना चाहिये। सुपात्रों को दान देने से व्यक्ति का धन कम नहीं होता अपितु बढ़ता है। दान की प्रवृत्ति का लाभ इस जन्म के साथ परजन्म में भी मिलता है। आर्यविद्वान् श्री उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ, आगरा अपने उपदेश में तर्क व प्रमाणों के साथ कहते हैं कि सुख सुविधाओं से युक्त किसी धनवान सेठ के परिवार में एक सन्तान पैदा होती है तो वह जन्म के साथ ही सेठ बन जाती है। अपने पिता व दादा की करोड़ों की सम्पत्ति में उत्तराधिकार उसे पहले दिन से ही प्राप्त हो जाता है। नौकर चाकर व परिवार के लोग उसकी छोटी से छोटी सुविधा का ध्यान रखते हैं। डाक्टर समय समय पर उसकी परीक्षा करते रहते हैं और उसे किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने देते। दूसरी ओर ऐसे बच्चे भी जन्म लेते हैं जिनके पास मां का दूध व न्यूनतम सुविधायें भी नहीं होती। यह अन्तर पूर्व जन्म में दान के रूप में किया गया निवेश या इन्वेस्टमेन्ट ही होता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई इसका कारण नहीं है। जीवन को कैसे जिया जाये, इसके लिए महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने चाहिये। जो व्यक्ति जिसको अपना आदर्श मानता है, वह पूर्ण नहीं तो कुछ कुछ वैसा ही बन जाता है। हमें महर्षि दयानन्द और उनके प्रमुख शिष्यों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि के जीवन चरित्र पढ़ने चाहिये और उनके जीवन की शिक्षाओं व आदर्शों को अपने जीवन का अंग बनाना चाहिये। ऐसा करके हम अशुभ कर्म से बचते हुए शुभ कर्मों की पूंजी एकत्रित कर सकते हैं। धन की शोभा दान से ही होती है। यदि किसी के पास धन है और उसके आस पास के लोग अशिक्षित और अज्ञानी है, तो उस व्यक्ति का धन किस काम का? वह तो मिट्टी का ढेला ही सिद्ध होता है। ऐसा समाज ही पतन को प्राप्त होता है। वेद ने कहा है कि मनुष्य त्याग पूर्वक भोगों का भोग करे। आवश्यकता से अधिक भोग न करें और धन व भौतिक साधनों के परिग्रही वा संग्रहकर्ता अर्थात् पूंजीपति न बने। यह धन मनुष्य का नहीं परमात्मा का है और उसने इसे अपनी समस्त प्रजा, मनुष्य व इतर प्राणियों, के लिए उत्पन्न किया है। धनवान व्यक्तियों को इस तथ्य को विस्मरित नहीं करना चाहिये।  माता-पिता के के तप व पुरुषार्थ से एक योग्य सन्तान का जन्म व पालन होता है और एक आचार्य के तप, पुरुषार्थ व विद्यादान से एक योग्य शिष्य व विद्वान् तैयार होता है जो देश व समाज का उपकार करता है। महर्षि दयानन्द और उनके शिष्यों ने यही कार्य किये हैं। तप व दान एक दूसरे के पूरक हैं और सुपात्रों को धन के दान से देश व समाज में उन्नति होती है, यह अतीत के अनेक उदाहरणों से सिद्ध होता है। धन की तीन गति होती हैं। प्रथम भोग, दूसरा दान और तीसरा नाश। अर्जित धन का भोग कर लो, जो बचे उसे दान कर दों अन्यथा यह धन ही मनुष्य के नाश का कारण बनता है। वित्त वा धन से मनुष्य की तृप्ति नहीं होती, यह सन्देश समाज में प्रसारित किया जाना चाहिये। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य