गज़ल
नफरत से ना ठान पुचकार चले हैं
तौफ़ीक़ से कब कोई सरोकार चले है|
मुझसे बतिया फिर हमी से दूरी लाना
कैसे करू मनुहार ये तकरार चले हैं|
चाहे से मिलता न यहाँ कुछ भी दुलार
ना सोच यहाँ राज़ अधिकार चले हैं|
तुम जीत लिया ज्ञान सही बात यही है
अब तो लड़ते भिड़ते सब हार चले है।
आ जाओ कि ये दिल मेरा बेज़ार चले है
दीदार को अब चाह ये बीमार चले है ।
तुम दम कितनी ही रखते हो चाहो पर।
तौफीक से कब कोई सरोकार चले है।
— रेखा मोहन
२७ /७/२०१७