देख तमाशा कुर्सी का
देख तमाशा कुर्सी का
घर में घमासान मच गया, बाप बेटे का द्वन्द हो गया।
अपनी अपनी पकेगी खिचडी, भण्डारा अब बन्द हो गया।
मै तो एक कुर्सी हूं
अलंकार न कोई मुझमें, फिर मेरी गजब की शोभा-
न मै रंभा, न मै मेनका, न मै उर्वसी जैसी हॅू
मै तो एक कुर्सी हूं
घर में घमासान मै कर दूं, रंक में अहंकार मै भर दूं,
रस से भरे है पाये मेंरे, मै तो सागर जैसी हॅू।
मै तो एक कुर्सी हूं
मेरी खातिर कौन लडेगा मेरा चेहरा कौन पढेगा।
परवाह नही है मुझको इसकी हूँ तन्हा पर बज्म के जैसी हूूूं।
मै तो एक कुर्सी हूं
विछडों को मै मिलवा देती, अपनों को मैं छुडवा देती।
तकदीर मुझको कोई माने, किसी के लिये समसीर जैसी हॅू।
मै तो एक कुर्सी हूं।
कई मालदार लडेगें, कई चौकीदार लडेगे।
किसके दामन में जाउंगी, अभी तो ‘राज’ जैसी हूं।
मै तो एक कुर्सी हूं।
— राजकुमार तिवारी (राज)