पहचान
महफिल में तन्हाई क्यूँ
डराती मुझे परछाई क्यूँ
अपनों के बीच अजनबी सी हूँ
मुझे खुद की एक पहचान चाहिये ।
जीवन से अंधियारा मिटा दे,
लकीरे किस्मत की चमका दे,
भविष्य को जो रौशन कर दे,
ऐसी कोई मशाल चाहिये ।
अपनों के बीच अजनबी सी हूँ
मुझे खुद की एक पहचान चाहिये ।
गम को अपने साये में छुपा के,
उदासियों को जड़ से मिटा दे,
हर सफर जो खुशनुमा बना दे,
बस एक सच्ची मुस्कान चाहिये ।
अपनों के बीच अजनबी सी हूँ
मुझे खुद की एक पहचान चाहिये ।
अजस्र कीर्ति हासिल करा दे,
जगत विश्रुत जो बना दे,
अम्बर सम ऊँचा नाम करा दे,
ऐसा कोई काम चाहिये ।
अपनों के बीच अजनबी सी हूँ
मुझे खुद की एक पहचान चाहिये ।
आंधी-तूफानों से लड़ पड़ू,
किसी भी विपदा से न डरू,
जो करूं अपने बूते करूं,
नहीं कोई अहसान चाहिये ।
अपनों के बीच अजनबी सी हूँ
मुझे खुद की एक पहचान चाहिये ।