ग़ज़ल
जब आंखों के वीराने में घना अंधेरा छा जाता है
तब धुंधली परछाईं में भी ख्वाब सामने आ जाता है।
जब रात गगन के आंचल में चांद सितारे भरती है
तब गगन का टूटा तारा मेरे मन को भा जाता है ।
मिश्री घुलती है कानों में जब झींगे झींझीं करते हैं
तन्हाई के उस आलम में अजब नशा छा जाता है।
ढूंढा करता है ये मन कुछ चाहत की जागीरों में
यादों की गठरी से ही दिल कुछ ना कुछ पा जाता है ।
कुछ बोल सुनाई देते हैं, कोई आह सुनाई देती है
सुर दिल को छू जाते हैं कोई जाने क्या गा जाता है।
अब और उजाले क्या करना “जानिब” इतने काफी हैं
मेरी राहों के सजदे में वो चांद जमीं पे आ जाता है।
— पावनी दीक्षित “जानिब”