ये परदेश की लड़कियां
ये परदेश की लड़कियां
कितनी बेखोफ़ होकर
सात समंदर पार होकर
बेख़ौफ़ चली आती है
परिंदो की तरह
आजाद होकर
वे निकलती है घर से
उन लोगो के मुह पर
तमाशा मार कर जो कहते
की औरत का कोई वजूद नही
बिना पुरुष के
घूमती है अकेली
ट्रेनों में ,बसों में
जंगलो में, पहाड़ो में
बेखोफ़ होकर
नही है परवाह उन्हें किसी समाज की
किसी धर्म की
वे नही जीती किसी की परिभाषा ओढ़ कर
वे निकलती है घर से खुद होकर
कोई नही कहता उन्हें
की कपड़े उनके छोटे है
कहेगा कोन उन्हें
उनके हौसले पर्वतों से भी बड़े है
काश निकले मेरे देश की भी लड़कीया
इसी तरह बेखोफ होकर
निर्भया से लक्ष्मीबाई हो कर
अबला से सबला होकर
अपनी परिभाषा खुद गढ़ कर
इसकी उसकी न होकर
घर से निकले खुद होकर