दादी माँ के घर झूले
घर की मियारी पर दादी ने,
डाले दो झूले रस्सी के।
चादर की घोची डाली है,
तब तैयार हुए हैं झूले।
अब झूलेगी चिक्की पिक्की,
चेहरे हैं खुशियों से फ़ूले।
इन्हें झुलायेंगे दादाजी,
हुए उमर में जो अस्सी के।
छप्पर पर पानी की बूंदें,
खरर -खरर कर शोर मचतीं।
चिक्की, पिक्की झूल रहीं हैं,
दादी गीत मजे से गातीं।
खाती दोनों चना कुरकुरे,
हो हल्ले होते मस्ती के।
दादी माँ के घर झूलों की,
चर्चा गली- गली में फैली।
झांक -झांक कर गए देखकर,
मोहन, सोहन ,आशा ,शैली।
हर दिन आने लगे झूलने,
और कई बच्चे बस्ती के।
अब दादी जी बड़े प्रेम से,
सबको झूला झूलवाती हैं।
हर बारी में अलग- अलग से,
एक -एक लोरी गाती हैं।
होते रहते मना मनौ अल,
स्वांग रोज गुस्सा गुस्सी के।
— प्रभुदयाल श्रीवास्तव