सभी भारतीयों के पूर्वज वैदिक धर्मी आर्य थे
संसार का सबसे पुराना धर्म व संस्कृति कौन सी है? संसार में हिन्दू, पारसी, बौद्ध, जैन, ईसाई व मुस्लिम आदि मत व संस्कृतियां विद्यमान हैं परन्तु इनकी उत्पत्ति आज से अधिकतम तीन या चार हजार वर्ष पूर्व ही हुई है। ब्रह्माण्ड के इस पृथिवी गृह पर मानव सृष्टि की समय अब से 1.96 अरब वर्ष पुराना है। सृष्टि की उत्पत्ति सम्पन्न होने के बाद जब आरम्भ में मनुष्यतेर प्राणी और मनुष्य उत्पन्न हुए तो उन्हें अपना जीवन यापन करने के लिए सृष्टिकर्ता ईश्वर, संसार का आदि निमित्त कारण, ने पूर्व सृष्टि में अपने पूर्व जन्म के कर्मां के आधार पर समस्त उत्पन्न मनुष्यों में उत्तम ज्ञान की सामर्थ्य रखने वाले चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। वेद चार हैं जिनमें ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित ज्ञान, कर्म व उपासना का ज्ञान दिया गया है। वेदों में तृण अर्थात् एक छोटे से तिनके से लेकर संसार की सबसे बड़ी सत्ता परमात्मा तक का सत्य व यथार्थ ज्ञान है। पृथिवी, सृष्टि अथवा ब्रह्माण्ड का ज्ञान भी चारों वेदों में निहित वा सम्मिलित है। अनेक ऐसे तथ्य भी वेद में दिये गये हैं जो केवल ईश्वर ही जानता है। ऐसे गम्भीर रहस्यों को बहु प्रतिभावान योगी या ऋषि ही जान सकते हैं जिनका वर्तमान समय में अभाव है। सृष्टि के प्रमुख रहस्यों में सृष्टि से पूर्व प्रलय अवस्था में ईश्वर, जीव व प्रकृति की स्थिति व उसका ज्ञान भी सम्मिलित है जिसे ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। वेदों में परमेश्वर द्वारा दिया गया इन विषयों का ज्ञान बुद्धिसंगत एव। विज्ञान क्ै अनुकूल है। वेदों ने मनुष्यों की गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित दो श्रेणियां बताई हैं। एक है आर्य व दूसरे अनार्य। आर्य श्रेष्ठ मनुष्यों को और अनार्य उसके विपरीत गुणों वाले मनुष्यों को कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल व उसके भी अनेक शताब्दियों बाद तक हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध व जैन शब्द अस्तित्व में नहीं आये थे। यह नाम इनके मत प्रर्वतकों व मतों की उतत्ति के बाद प्रचलित हुए है जबकि हिन्दू नाम विदेशी मुस्लिमों की देन है जिसके अर्थ, चोर, काफिर, काला, नाटा आदि लज्जाजनक हैं। महाभारतकाल व उसके बाद कई शताब्दियों तक देश व विश्व भर में वेदानुयायियों के लिए केवल आर्य व अनार्य शब्दों का प्रयोग ही किया जाता था। श्री कृष्ण जी ने महाभारत व गीता में अर्जुन के लिए आर्य शब्द का प्रयोग किया और महाभारत युद्ध से पूर्व अर्जुन को हुए विषाद को दूर करने के लिए कृष्ण जी ने उसके इस व्यवहार को अनार्यत्व का द्योतक बता कर इसका त्याग करने को कहा। इससे यह सिद्ध होता है कि आज से 5,000 वर्ष पूर्व तक आर्य व अनार्य शब्दों का प्रयोग होता है। बाल्मीकि रामायण में रामचन्द्र जी के लिए आर्य शब्द का प्रयोग मिलता है। माता सीता जी श्री राम को आर्यपुत्र कहती थी। प्राचीन काल में यह परम्परा थी कि देवियां अपने पति को आर्यपुत्र के नाम से ही सम्बोधित किया करती थी। आर्यपुत्र का अर्थ होता था वेद व वैदिक परम्पराओं का निर्वाह करने वाला देव, पति व मनुष्य। आज संसार में जितने भी मनुष्य हैं इन सबके पूर्वज वेदानुयायी आर्य थे अथवा आज के सभी मनुष्य आर्य पूर्वजों की सन्तानें हैं। केवल आर्य व अन्य गुण वाचक शब्दों का प्रयोग इस बात का भी संकेत करता है कि तब वेद से इतर किसी अन्य मत का कोई अस्तित्व नहीं था। कालान्तर में अविद्या का प्रसार होने से मत-मतान्तरों की उत्पत्ति हुई। सभी मतों में अविद्या से युक्त कथन व मान्यतायें हैं जिनका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में कराया है।
कालान्तर में आर्य शब्द स्थान हिन्दू शब्द ने कैसे लिया, इसका भी इतिहास है। यह ज्ञातव्य है कि संस्कृत के इतिहास ग्रन्थ व कोषों में हिन्दू शब्द नहीं पाया जाता। इसका अस्तित्व अरबी भाषा के ग्रन्थों व शब्द कोषों में पाया जाता है। वहीं से यह भारत में आया और यहां प्रचलित हुआ। ऋषि दयानन्द ने खोज कर बताया है कि अरब व उसके आसपास के मुस्लिम मत को मानने वाले लोग अपनी भाषा व प्रकृति के अनुसार आर्यों के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग करते थे। उनकी दृष्टि में आर्य अच्छे लोग नहीं थे। पूर्वाग्रहों के कारण उन्होंने चोर, काफिर, काला, नाटा आदि निकृष्ट व हेय अर्थों में वैदिक मत को मानने वाले भारतवर्षीय लोगों के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग किया और इस देश को हिन्दुस्तान वा हिन्दुस्थान नाम से सम्बोधित करते थे। कालान्तर में जब उन्हें भारत के कुछ भागों पर अनैतिक रूप से आक्रमण कर विजय प्राप्त हुई तो उन्होंने अपनी प्रकृति के अनुसार यहां के सीधे सादे सरल, दया व करूणा को धर्म मानने वाले लोगों पर अत्यचार किये और उनको मृत्यु का भय दिखाकर धर्मान्तरण किया। उनके आक्रमण व कुछ प्रदेशों पर उनके शासन के समय आर्यशब्द गौण होकर अपना प्रचलन विस्मृत कर बैठा। इसका कारण मुस्लिमों का डर तो था ही साथ में अज्ञानता भी हो सकती है। इस प्रकार से हिन्दू शब्द अस्तित्व व प्रयोग में आया है।
स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में हिन्दू शब्द के अरबी वा मुस्लिम शब्द कोषों में हेय व निकृष्ट चोर, काफिर, काला आदि नामों का उल्लेख कर उन्हें झकझोरते हुए कहा है कि आर्यों! कर्म व आचरण भ्रष्ट हुए तो हुए परन्तु तुम्हें नाम भ्रष्ट कदापि होना उचित नहीं है। तुम्हें हिन्दू शब्द का अपने लिए प्रयोग छोड़ कर आर्य जैसे श्रेष्ठ अर्थों वाले शब्द को अपनाना चाहिये। खेद की बात है कि हमारे आर्य भाईयों ने ऋषि दयानन्द के उन्हें गौरवान्वित करने वाले इस सुझाव को नहीं माना और आज भी वह हिन्दू शब्द को अपने गले लगायें हुए हैं। वेद का सन्देश है कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। आज भी ऋषि दयानन्द का सन्देश आर्यों व हिन्दुओं के कर्णधारों को सत्य के ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने का आह्वान वा प्रेरणा कर रहा है। यह एक ऐसा विषय है जो हमेशा बना रहेगा। यह बात भी है कि आज कोई हिन्दू शब्द के उन अर्थों का प्रयोग नहीं करता जो इसके उत्पत्ति के स्रोत ग्रन्थों में बतायें गये हैं। हिन्दुओं का उत्कर्ष तभी हो सकता है कि जब वह मनुष्य कृत अविद्या व अज्ञान के ग्रन्थों व अपने स्वार्थों का त्याग कर वेदों को अपनायें और अपनी सभी परम्पराओं व मान्यताओं को वेद के आधार पर ही निश्चित करें। इसी से विश्व का कल्याण भी होगा। सत्य व अंहिसा वेदों को अपनाने से वृद्धि को प्राप्त होकर समाज को सुदृण करेंगे।
संसार में सबसे पुरानी पुस्तक वेद है। वेद की भाषा, शब्द व शब्द सामर्थ्य, शब्दों का धातुज या यौगिक होना, एक शब्द के अनेकानेक अर्थ होना आदि इसे अपौरुषेय सिद्ध करते हैं। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को भाषा की आवश्यकता होती है। किसी भी मनुष्य या मनुष्य समूह, जो भाषा व शब्दों से सर्वथा अपरिचित व अज्ञ हो, उसमें यह सामर्थ्य नहीं होती कि वह भाषा व शब्दों को बना सके। आप कल्पना कीजिये कि एक ग्रामीण व्यक्ति जो टूटी फूटी हिन्दी जानता है, क्या कभी किसी अन्य उन्नत व शब्द व व्याकरण सम्पन्न भाषा की उत्पत्ति कर सकता है? वेद जैसी भाषा बनाने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए यह सिद्धान्त मानना ही होता है कि सृष्टि की आदि भाषा ईश्वर से प्राप्त होती है जिस प्रकार हमें अपना शरीर व इसके सभी अवयव ईश्वर की व्यवस्था से बनकर प्राप्त होते हैं। वेद और संस्कृत भाषा विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक व भाषा होने के साथ पूर्ण ज्ञान के स्रोत व ग्रन्थ हैं। अतः यही मानना होगा कि सृष्टि में आर्य ही आदि पुरुष हैं। आर्य के ही गुण, कर्मानुसार चार विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हुए जो आदि काल से ही प्रचलित हैं। आदि मानव सृष्टि पांच हजार वर्ष पुराने ग्रन्थ महाभारत एवं अन्य प्रमाणों के अनुसार तिब्बत में हुई थी। इसके लिए स्वामी दयानन्द जी का सत्यार्थप्रकाश और स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का ‘आर्यो की आदि देश और उनकी सभ्यता’ ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं। यहीं से मनुष्य सारे संसार में फैले हैं। देश, काल, परिस्थिति एवं भौगोलिक कारणों से मनुष्य की आकृति, खान-पान, रीति रिवाजों एवं भाषा आदि में परिवर्तन हुए हैं परन्तु संसार के सभी देशों में मनुष्यों का फैलाव तिब्बत व आर्यावर्त्त से लाखों व करोड़ों वर्षों पूर्व आरम्भ हुआ व बाद में भी होता रहा है। यह बात सिद्ध करती है कि संसार के सभी लोगों व मत-मतान्तरों के अनुयायियों के पूर्वजों मूल रूप से भारत से उन उन भूभागों, देशों व स्थानों में गये थे और महाभारत काल तक वह सभी आर्यमत के अनुयायी थे। अतः सबको यह ज्ञात व स्वीकार होना चाहिये कि संसार के सभी लोगों के मनुष्य वैदिक धर्मी आर्य ही हैं। पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर आदि भी इस तथ्य को जानते थे व स्वीकार करते थे। ओ३म् शम्।
— मनमोहन कुमार आर्य