गीतिका/ग़ज़ल

रिश्तों को बदलते देखा है

रिश्तों को मैंने कुछ यूँ बदलते देखा है,
बारिश के वक्त में आग जलते देखा है।

वक़्त रहते संभाला न अपने जज्बातों को,
सब बिखर जाने पे हाथ मलते देखा है।

वादे करने में क्या जाता सौ बार करो,
बुरे वक़्त पे मुँह मोड़ निकलते देखा है।

जिसने ताउम्र ढाया था सितम दुनिया पे,
उसका भी अंत में दिल पिघलते देखा है।

लगाता रहा दुनिया का वो चक्कर बेफिक्र,
खुद क़े घर में ही उसे फिसलते देखा है।

वो सगा था बड़ा हुआ बड़े आराम में,
अनाथों को भी अच्छे से पलते देखा है।

ओमप्रकाश पाण्डेय सोहम

Writer/Blogger बहराइच, उत्तर प्रदेश