गीत “फटी घाघरा-चोली”
कहाँ खो गई मीठी-मीठी इन्सानों की बोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
कहाँ गयीं मधुरस में भीगी निश्छल वो मुस्कानें,
कहाँ गये वो देशप्रेम से सिंचित मधुर तराने,
किसकी कारा में बन्दी है सोनचिरैया भोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
लुप्त कहाँ हो गया वेद की श्रुतियों का उद्-गाता,
कहाँ खो गया गुरू-शिष्य का प्यारा-पावन नाता,
ढोंगी-भगत लिए फिरते क्यों चिमटा-डण्डा-झोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
मक्कारों को दूध-मलाई मिलता घेवर-फेना,
भूखे मरते हैं सन्यासी, मिलता नहीं चबेना,
सत्याग्रह पर बरसाई जाती क्यों लाठी-गोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
लोकतन्त्र में राजतन्त्र की क्यों फैली है छाया,
पाँच साल में जननायक ने कैसे द्रव्य कमाया,
धरती की बेटी की क्यों है फटी घाघरा-चोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)