अब समझना क्या समझाना क्या
एक दिन यू ही मार्निंग वाक् कर रहा था की एक कागज़ का टुकडा मिला जिस पर लिखा था
सत्तर साल गुजर गए
समझना क्या समझाना क्या
बौद्ध बने या तुर्क बने
अब इनको मनाना क्या
लेखक का मनतब्य कुछ भी रहा हो लेकिन इस ठकुरसुहाती के दौर में धारा के बिपरीत यह कविता मुझे बहुत अच्छी लगी. क्योकि इसका सन्देश बिलकुल स्पष्ट है. ७० साल बीत जाने के बाद भी अगर हालात जस के तस है तो निश्चित तौर पर इस लोकतंत्र प्रणाली में कही न कही बहुत भयंकर दोष है जिसमे सवर्णों को गाली देने वाला दलितों का और हिन्दुओ को गाली देने वाला मुसलमानों का सर्वमान्य नेता बन जाता है. और यह सब देखते हुए भी हम उस संविधान का पुनरावलोकन नहीं करना चाहते जो हमारे देव पुरुषो ने बड़े कौटिल्य बुद्धि से रचा है. जिसमे राजनीतिज्ञों के हनक, बुद्धिजीवियों के बुद्धित्व, न्याय्शास्त्रियो के देवत्व और अधिकारियों के तानाशाही का पूरा ध्यान रखा गया है, साथ साथ जातीय, धार्मिक क्षत्रपो को उभरने का पूरा मौक़ा दिया गया है. संविधान के रचनाकारों ने संविधान लिखते समय अपनी सारी बौद्धिक ऊर्जा जाती सम्प्रदाय और क्षेत्रीयता को साधे रहने पर खर्च करके लोकतंत्र का एक ऐसा रूप निरुपित कर दिया है जो देखने में न्यायमूलक, समतामूलक रामराज्य के पारी कल्पना जैसा लगता है लेकिन सच्चाई क्या है किसी से छिपा नहीं है. आज के संवैधानिक प्राविधानो से जितना जातिवाद, सम्प्रद्राय वाद बढ़ा है उतना तो अंग्रेजो और मुगलों के भी जमाने में नहीं था. और यह तबतक बढ़ता रहेगा जबतक बोट बैंक के लालच को छोड़कर कोई कठोर कदम नहीं उठाया जायेगा. इस भ्रष्टाचार, अलगाव के प्राविधान के शर्त पर ज़िंदा लोकतंत्र से तो तानाशाही कई गुना बेहतर है. चुनाव भले ही बहुत अच्छी विधा है लेकिन जिस चुनाव से लालू मुलायम मायावती जैसे लोग चुने जाय, जिन प्राविधानो से प्रतिभा पलायन करे, लोगो में विद्वेष पैदा हो, देश को खंड खंड करने वाले को प्रोत्साहन मिले, तो निश्चित तौर पर पुरे सिस्टम पर चिंतन करने की आवश्यकता है. जब धार्मिक मुद्दों और जातीय मुद्दों के सामने राष्ट्रिय मुद्दे गौण होने लगे तो ऐसे विषम परिस्थिति से देश को बाहर निकालने का कठोर प्रयास होना चाहिए. गरीबो का मदद होना चाहिए लेकिन ऐसा मदद न हो की उनकी गरीबी भी न मिटे और जातीय विद्वेष के शिकार भी हो जाय. गरीबी, जातीय उन्माद जगाकर समाप्त करने का नायाब तरिका यहाँ के राजनीतिग्य अपनाए है. कितना आश्चर्यजनक है की तमाम दंश झेलने के बाद भी कोई मुसलमान हिन्दू होने की धमकी नहीं देता जबकि यहाँ कुछ लोग बात बात में मुस्लिम बौद्ध होने की धमकी देते है.
आदरणीय पांडेय जी ! अति सुंदर लेख ! आपने बहुत सही कहा चाहे जितनी भी दिक्कत हो कोई मुसलमान कभी हिन्दू होने की धमकी नहीं देता जबकि आये दिन बात बेबात हिंदुओं और दलितों की मुस्लिम हो जाने की धमकी आते रहती है । दुसरी शादी करनेवाले तो इस्लाम अपनाकर कानून से बच जाते हैं । धन्यवाद ।
राजकुमार जी , यह ब्लाग लिखते समय मुझे बहुत डर लग रहा था क्योकि लोग अर्थ का अनर्थ लगाने लगते है / हौसला आफजाई के लिए आपका बहुत बहुत धन्यबाद /