कविता

कविता : *एक गुमनाम सुखनवर*

*एक गुमनाम सुखनवर*

मुझसे मत पूछ मेरा रूदाद-ए-सफर,
ना तो रस्तों का पता है ना ही मंजिल की खबर।

तुझसे उम्मीद करूं क्या ऐ मेरी याद-दहानी,
दर्ज कुछ है ही नहीं होश के वरक पे सिफर।

मैं तो नादिम हूँ तवील-ए-उम्र रविश पर तेरी,
खिजां में कैसे हरा है ये उसकी यादों का शजर।

मैं तो अब खुद से भी मिलता हूँ मुनाफिक की तरह,
है असीर मेरी शबीह मेरे माजी की नज़र।

मेरी बीनाई नहीं काफी है मुस्तकबिल के लिए,
जबीं से और टकराना है कौन-सा पत्थर।

मुतमुइन हूँ कि एहतेजाज इसी बात का है,
के बोशीदा ही सही मयस्सर है भरम की चादर।

मेरी तकदीर को भी मुझसे हसद होती है,
के रिदा-ए-याद के पहलू में मेरी कैसे गुजर।

गाहे-बगाहे तुम जो कभी आओगे “राज”,
तुमको इसी मोड़ पर मिलेगा ये गुमनाम सुखनवर

– राज सिंह

राज सिंह रघुवंशी

बक्सर, बिहार से कवि-लेखक पिन-802101 [email protected]