सामाजिक

शिक्षा में सुधार को लेकर सरकारों की सुषुप्त अवस्था ठीक नहीं

          सरकारी स्कूलों की दयनीय स्थिति जगज़ाहिर है। लेकिन इन स्कूलों में व्यापक स्तर पर सुधार की बाट सरकारें नहीं जोह पा रहीं हैं। पिछले दिनों मानव संसाधन मंत्रालय ने शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए सुझाव दिया, कि सभी राज्य सरकारें  शिक्षकों को जनगणना, चुनाव और आपदा राहत कार्यों को छोड़कर अन्य किसी भी ड्यूटी पर न लगाए।  इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को लेकर एक बड़ा कदम उठाते हुए सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 में संशोधन करते हुए शिक्षकों की ट्रेनिंग अवधि को बढ़ाने का कार्य किया। 2010 में करीब साढ़े चौदह लाख शिक्षकों की भर्ती की गई थी। जिनके पास ज्ञान और अनुभव की कमी थी। ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार कैसे होता? गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्राप्त करना देश के नौनिहालों का हक हैं, इस लिए इस संशोधन का स्वागत होना चाहिए, लेकिन देश में व्याप्त शिक्षकों की कमी और  सरकारी स्कूलों की बीमारु हालत को देखते हुए ऐसे फैसलों को लेकर यह कहना सही नहीं  होगा, कि सरकार ने नौनिहालों की शिक्षा में सुधार का भगीरथी प्रयास किया हैं। सरकार का यह प्रयास मात्र ऊंट के मुँह में जीरा के भाँति से ज्यादा कुछ नहीं है।
         आज सरकारों की सुषुप्त रवायत के कारण आवाम अपने पाल्य को सरकारी स्कूल भेजना उचित ही नहीं समझती, क्योंकि सरकारी तन्त्र ने ऐसी स्थिति खुद निर्मित की। आज दोहरी शिक्षा व्यवस्था ने संरक्षकों को यह विश्वास दिलाया है,  कि बच्चे को पढ़ाना है तो उसे इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजा जाए।  यह अलग बात है, कि देश में मिड-डे मील योजना से बच्चों के स्कूल जाने का स्तर तो बढ़ा, लेकिन  फिर  सरकारी स्कूल  खाना बनाने और खिलाने की रसोईयां बनकर रह गए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2016 की असर रिपोर्ट बताती है, कि ग्रामीण सरकारी स्कूलों के आठवीं के छात्रों में से सिर्फ 40.2 प्रतिशत छात्र गणित के भाग सवाल को हल कर पाते है। इसके साथ 2016 में आठवीं के 70 प्रतिशत छात्र है, जो दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते है। जो आंकडा 2012 में 73.4 फीसद था। यूडीआईएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 97923 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में मात्र एक शिक्षक है। इस सूची में मध्यप्रदेश 18190 के साथ पहले स्थान पर है। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत 30 से 35 छात्रों एक शिक्षक होना चाहिए। अगर देश में शिक्षा की यह स्थिति है, फिर देश की उन्नति में युवा कहां है? एक ओर किसान देश में बेहाल है, फिर वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा कैसे उपलब्ध करा सकता है?
                 वर्तमान में देश की सरकारी शिक्षा पद्धति कई रोगाणुओं से ग्रषित हो चुकी है। जिसमें शिक्षकों की कमी, गुणवत्ता की गिरती साख, और शिक्षकों में ज्ञान की कमी अहम है। समस्या सिर्फ शिक्षकों की ट्रेनिंग से नहीं जुड़ी है। ऐसे में इन समस्याओं से निजात के लिए नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने शिक्षा के निजीकरण की बात करते है, तो झटके उसके भी कम नहीं है।  ऐसे में अब मात्र कोरे नारों और इरादों से शिक्षा में सुधार नहीं होगा, उसके लिए ठोस प्रयास किए जाने होंगे। एक तथ्य यह भी  है, कि सरकारी स्कूलों की अधोसंरचना और ख़ामियों से ऊबकर जनता ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से दूर रखना उचित समझा हो। तो ऐसे में सरकारों को सरकारी स्कूलों की मूलभूत सुविधाओं में बढ़ोत्तरी की ज़हमत जोहना चाहिए। फिर जिस हिसाब से देश में शिक्षा प्रणाली गर्त में जाती दिख रहीं हैं, वह बताती हैं, कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को सिंगापुर और फिनलैंड के नजदीक भटकने में वर्षों लगेगें।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896