हास्य व्यंग्य

जश्न-ए-आजादी

अभी कल शाम को पन्द्रह अगस्त की आजादी मनाकर और इससे निपटने के बाद जब कुछ लिखने बैठे तो मेरा लैपटपवा दगा दे गया और पता नहीं क्यों कुछ खिसियाया हुआ सा लगा। जैसे कह रहा हो, “जाओ-जाओ अपने उंही मोबइलै पर लिखो, अब हमार का जरूरत।” मैंने सोचा, “आदमी तो आदमी! आदमी के साथ रहते-रहते ई मशीनऊ-फशीनऊ में डाह का वाइरस घुस गया है।” असल में गलती भी तो हमारी है, ऊ का है कि आजकल लिखने में एनड्राइड का इस्तेमाल कुछ ज्यादा करने लगे हैं, अऊर ऊ लैपटपवा खाली बैठा-बैठा ई सब देखि के यह सोच बैठा होगा, “यह आदमी अब हमको नहीं पूँछ रहा है, इसको मजा चखा दे” बस हिंयईं से ई हमारे लैपटपवा का खाली बैठा साफ्टवेयर शैतानी पर उतर आया और हमसे बदला चुकाने लगा है।

फिर उसके बदले की भावना को सोच मै मन ही मन बड़बड़ाने लगा-

“या फिर ईहौ ससुर आज के दिन हमसे आजादी मागै लाग हों? खैर..हम इसे आजादी देने से रहे इसके साफ्टवेयर का कीड़ा तो निकलवा कर ही दम लेंगे। आखिर हम भी तो आदमी हैं! हमसे ई बच के कहाँ जाएगा? भला आदमी से भी कहीं कोई बच सका है? और फिर कोई पाकिस्तानी साफ्टवेयर दिमाग थोड़ी न है इसका कि अमेरिका की जरूरत पड़े।

अरे तुम, लैपटॉप हो तो बने रहो लैपटॉप..। ऊ बेचारा मोबाइल छोटा सा! हम जब भी चाहें वह हमारी जेब में रहने और इस्तेमाल होने के लिए तैयार बैठा रहता है..फिर उसे पूछेंगे कि तुम्हें..! इतना भी नहीं समझते हो? जब तुम हमारे जेब में नहीं आ सकते हो तो तुम्हारा लैपटॉप होना बेकार है, तुम्हारे अन्दर का साफ्टवेयर बेकार है! हाँ, तुम देखने भर के लिए धरे रहो कि तुम्हऊ भी हो। बड़े आए! लैपटॉप बने फिर रहे हो। आज के दिन मेरे लिखने की आजादी की तुमने भद पिटा दी..आज आजादी के कितने तराने मन में उठे थे! सोचा था कि हमऊं इसपर कुछ लिख के अपनी आजादी का जश्न मना लेंगे, बाकी तीन सौ पैंसठ दिन तो सब चला ही करता है। लेकिन लैपटॉप होने के अपने गुरूर में तुमने मेरी आजादी का गुड़-गोबर कर दिया। एक तो वैसे ही यहाँ सब अपनी वाली आजादी माँगने के लिए तैयार बैठे रहते हैं, इसी में तुम्हऊ भी घुसे पड़े हो..! कित्ता प्रयास किया कि तुम अपने न चलने की आजादी माँगने से बाज नहीं आ रहे हो, तुम्हारी आजादी की धर-पकड़ में दिमाग का माठा हो गया..! चलो मैं तुमसे तो बाद में निपटता हूँ, पहले अपने मोबाइल से काम चलाता हूँ..।”

हाँ तो, आजादी के जश्न में शामिल होने के लिए अलमारी में तहिया कर रखे अपने झकास सफेद शर्ट को निकाल कर पहन लिया था। असल में इहऊ सरऊ आलमारी में बंद पड़े-पड़े हमका खूब कोसत रहते थे कि “का हम देखइ भर के लिए ही हैं..अरे, कभी हमें भी तो पहन लिया करो।” खैर, हमें भी कम से कम आज आजादी के दिन ही सही, अपनी सफेदी दिखानी ही थी, सो इन्हई आलमारी से निकाल पहन लिए थे। हाँ, एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है वह बताना ही मैं भूल गया था, यह बात आलमारी में तहिया कर रखे इस सफेद शर्ट को भी नहीं पता है। वह यह कि, साहबान लोग अपने मातहत को झकास सफेदी में देखकर चिढ़ जाते हैं, लगते हैं उस बेचारे को आँय-साँय-बाँय सुनाने! ऐसे में उस मातहत बेचारे को झकास सफेदी में अपने साहब के सामने जाने में मुश्किल और शर्म दोनों आती है, सो तमाम संकट से बचने के लिए वह बेचारा मातहत अपने पहने झकास सफेदी को उतार फेंकता है और फिर उसे तहिया कर आलमारी में रख देता है, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए। हाँ, आजादी के दिन इसी को पहनने के लिए मैंने निकाला..!

और अपनी इस सफेदी में आजादी के दिन का झण्डारोहण, सभाबाजी-भाषणबाजी सब सम्पन्न हुआ। यहाँ भाषणबाजी का जियादा जोर विकास भवन की सफाई अउर थूकबाजी के ऊपर रहा। लोग-बाग लोगों की थूकबाजी और गन्दगीबाजी की आजादी में खलल डालने पर आमादा हो रहे थे और वह भी केवल अपनी भाषणबाजी से बस। खैर इससे तात्कालिक रूप से इस आजादी पर कोई खतरा नहीं था। इहाँ हम तो आपन एक ठो कविता ठेल के आपनी आजादी जाहिर कर दिए थे। फिर लौट करके इस सफेदी पर कोई दाग-दूग न पड़ जाए इहई सोचते हुए इसे उतार कर फिर उसी आलमारी में तहिया दिया और एक गाढ़े कलर का शर्ट पहन आगे के कार्यक्रमों में निकल लिया। ई ससुर सफेदी पर दाग-धब्बा भी तो जल्दी दिखाई दे जाता है और गाढ़े रंग पर पर तो दाग-दूग का स्पाट-वेरीफिकेशन ही मुश्किल होता है, सो बड़े आराम से गाढ़ा रंग पहन कहीं भी निकल सकते हैं, सो मैं भी निकला। हाँ, यहाँ नेता-नूती के सफेदी के नकल के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए उनके पास जो डिटर्जेंट टिकिया है वह हमारे पास नहीं है..! अगर इसे नहीं समझे तो फिर गए काम से..!

हाँ तो, इसके बाद जिले में कई जगहों पर हो रहे पेड़रोपण कार्यक्रम देखने हम निकल लिए। इस पूरे दौड़भाग में कुछ नजारा देख के सन्तोष मिला कि चलो इस साल खूब पानी बरस रहा है और बरसते पानी में छाते के नीचे हमने भी एक-दो जगह पेड़ लगाए। ऐसे ही एक जगह बैठे थे तो एक ठो गाँव-वासी बोल पड़ा “अरे साहब अब बहुत पानी बरसो, फसल खराब हो रह्यो..” मैंने इसपर कहा कि “अभी तक सूखे से हलाकान हो रहे थे और अब ऊपर वाला जब दया कर रहा है तो ऐसे कह रहे हो?” फिर मैंने आदमी के बारे में सोचा कि “जब अपने पर पड़ती है तो यह आदमी सब नापतौल कर चाहता है, लेकिन यही आदमी दूसरों के साथ अति करने में भी नहीं हिचकता।” और मैं बोला पड़ा, “बरसने दो यार भगवान कहाँ-कहाँ पैमाना लेकर नापेंंगे कि बस यहाँ यह इत्ता ही..क्या तुम भी इसका खयाल रखते हो..?” हालाँकि फिर मैंने सोचा कि मैं कुछ जियादा बोल गया..आखिर जब भगवान ने यह धरती इतने जतन से नापतौल कर बनाई है तो इंसानों को भी नाप-जोख कर लेने का हक तो बनता है..” फिर मुझे भगवान के ऊपर दया आई कि “बेटा भगवान, तुम ऐसे ही मनमानी करोगे तो एक दिन जब यही आदमी अपनी ए.के. 47 से तुम पर टूट पड़ेगा तब तुम्हें बात समझ में आएगी..वैसे भी हम आजादी चाहने वालों से हलाकान रहते हैं, जब यही तुम पर पड़ेगी तब सारी भगवानगीरी निकल जाएगी..हम भी तमाम” गीरी” करके इस बात को समझ गए हैं..ऐसे ही सर्वव्यापी हो..? सिस्टम बनाकर सिस्टम में रहकर सिस्टम से दूर नहीं रह पाओगे..!!” इसके बाद भगवान की बेहद धीमी भयभीत सी आवाज मेरे कानों में पड़ी जैसे वे ए.के.47 से डरकर बोले हों, “अरे यार! तुम्हऊ लोग बड़े अजीब हो अपनी आजादी नाप-जोख कर तो माँगते नहीं, बस हमीं को धमकाते हो..!” तभी किसी ने मुझे पेड़ लगाने के लिए कहा, हलांकि मैं भगवान से कहना चाहता था कि “आप जरा इन्द्र भगवान से वर्षा को थोड़ा रोक देने के लिए कह दें…क्योंकि, जित्ता आप सोच रहे हो उत्ता आजादी अभी इन बेचारों को नहीं मिली है..ज्यादा सूखा या वर्षा से, इन्हें जो थोड़ी-बहुत आजादी मिली भी है या मिलने की सम्भावना है, वह भी आजादी चाहने वालों के हाथ ही लग जाती है, ये बेचारे तो आपके ही भरोसे हैं बहुत आजादी से इन्हें मतलब नहीं है.. लेकिन कह नहीं पाया और बरसते पानी में ही पेड़रोपण हेतु उठ पड़ा।

इसके बाद इस पेड़रोपण कार्यक्रम को देखकर लौट आने में जितना समय लगा उससे जियादा तो इस बात की चर्चा में लग गया कि इस महान कार्य का प्रचार कैसे किया जाए। इस चर्चा में भाग लेकर लगा जैसे पेड़रोपण तो बस बहाना था बल्कि यह तो किसी की जड़ जमाने की कवायद थी।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.