“स्वार्थ छलने लगे”
करते-करते भजन, स्वार्थ छलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।
झूमती घाटियों में, हवा बे-रहम,
घूमती वादियों में, हया बे-शरम,
शीत में है तपन, हिम पिघलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।
उम्र भर जख्म पर जख्म खाते रहे,
फूल गुलशन में हरदम खिलाते रहे,
गुल ने ओढ़ी चुभन, घाव पलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।
हो रहा हर जगह, धन से धन का मिलन,
रो रहा हर जगह, भाई-चारा अमन,
नाम है आचमन, जाम ढलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)