जल की तृष्णा
आज देखी है मैंने जल की तृष्णा
बड़ी भयंकर,विभत्स,अनोखी सी।
अजस्र नरों का रक्त पीकर
इठलाती चल दी भूखी सी।
अपना बहाव बदलकर आई है
जन-मानस के जंगल में।
बस जीत रही है आज अकेले
प्रकृति-मानव के दंगल में।
पर बुरा भी क्यों मानूं मैं उसको
जब उसे हमने ही हरकाया है।
अपनी लोभ की तृष्णा में
उसकी तृष्णा को भरकाया है।
अपना घर सजाने को
उसका आशियाना मिटाया है।
नदी को तालाब बनाकर
पेड़ों को काट गिराया है।
जल से हमने किया था छल
अब हमको है तरपा रही।
तृष्णा उसकी जगी है जो
बर्बादी का मतलब हमको है बता रही।
मुकेश सिंह
सिलापथार,असम
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