दिव्यांगों के आदर्श – श्री बच्चूसिंह (भाग 4)
जब माउंटबेटन भारत पहुंचा तब तक बच्चूसिंह सभी राजनीतिक विषयों पर अपना पक्ष आप रखने वाली मानसिकता में थे। आरम्भ में भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता के वे अन्यों के साथ सहयोग बनाते थे, लेकिन परिस्थितियाँ इतनी बदलीं कि वे किसी भी राजनीतिक दल के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते थे।
1932 में “कम्यूनल अवार्ड” और “पूना समझौते” के विरुद्ध “क्षत्रिय आंदोलन” के समय सर छोटूराम ने “अजगर” क्षत्रिय आंदोलन चलाया जो केवल विकलांगों, अनाथों, जरूरतमंदों को संरक्षण देता था। छोटूराम यूनियनिस्ट नेता थे, बच्चूसिंह भी इनकी राजनीति के उत्साही समर्थक बन गए थे।
पूना समझौते की 10 वर्षीय अवधि 1942 में समाप्त हुई; किन्तु भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध श्रम-मंत्री भीमराव अंबेडकर के समर्थन में सरकार ने इसे बनाए रखा जिससे आंतरिक विरोध बढ़ने लगा। 1945 में छोटूराम की मृत्यु के बाद उनके आंदोलन का नेतृत्व बच्चूसिंह के पास आ गया। तब उनके नेतृत्व में जन क्रांति से डरकर सरकार ने महाराजा बृजेन्द्र को “क्षत्रिय कर्तव्य” के नाम से बच्चूसिंह को बंगाल के युद्ध क्षेत्र में भेजने के लिए मना लिया; साथ ही उन्हे संतुष्ट करने के लिए पदोन्नत भी किया।
बंगाल में अजगर समुदाय और आर्य समाज नहीं थे; जापान से डरकर ब्रिटिश सरकार पीछे हट गई थी। इस समय जनता को राहत देने की जगह “कृषक प्रजा पार्टी” के भ्रष्टाचार के कारण अकाल फैला हुआ था; सेना भी मुश्किल से राशन प्रबन्ध कर रही थी। बच्चूसिंह इस राजनीतिक रूप से बेहद आहत हुए, किन्तु वे सुभाषचन्द्र बोस के बड़े भाई शरतचंद्र बोस व आईएनए के सहयोगियों से जुड़ गए जिससे उनका राजनीति उत्साह बना रहा। युद्ध के बाद यद्यपि बच्चूसिंह को युद्ध के समय बंगाल में शांति व्यवस्था रखने और जापान आक्रमण को हराने के लिए मेडल दिये गए; तथापि, उन्होने आईएनए के समर्थन से जनवरी 1946 में स्वतन्त्रता क्रांति करवा दी।
राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थों हेतु क्रांति का विरोध कर षडयंत्र से “तलवार” पोत पर उसे फरवरी 1946 में समाप्त करवाने के कारण बच्चुसिंह राजनीतिक दलों से उखड़ गए। यूनियनिस्ट के मुस्लिम नेताओं द्वारा 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के आयोजित ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ में समर्थन से बच्चूसिंह ने राजनीतिक दलों से अपने आपको पूर्णत: अलग कर लिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध में भारी हानि के कारण ब्रिटेन अपने उपनिवेशों पर नियंत्रण रखने की स्थिति में नहीं था और 1946 विद्रोह के बाद अव्यवस्था और पाकिस्तान के दंगों के कारण भारतीय ब्रिटिश प्रशासक डरे हुए थे ही। अत: बच्चूसिंह ने इसी समय का लाभ उठाकर खुद भरतपुर में वाइसराय लॉर्ड वेवेल सहित ब्रिटिश अधिकारियों को डराया धमकाया। घबराए वेवल ने अपनी परिषद ही खतम करके भारत छोड़ने का प्लान तैयार कर लिया।
ब्रिटेन इस स्वतन्त्रता के विरुद्ध था। परंपरानुसार एक वायसराय के निकल जाने के बाद ही दूसरा वायसराय आता था, लेकिन वेवेल भागने की तैयारी कर चुका था, इसलिए स्थिति बदलने के लिए राजा जॉर्ज VI ने अपने कूटनीतिज्ञ सहोदर लुईस माउंटबेटन को वेवेल के ही दौरान वाइसराय बनाकर भारत भेजा। इसका काम था भारत को पूर्ण विभाजित करके शक्तिहीन करना और कॉमनवेल्थ में डालकर ब्रिटिश प्रभाव बनाए रखना।
माउण्टबेटन ने रियासतों के लिए रेजीडेंटों को पटाया और शेष भारत के लिए जिन्नाह और नेहरू को चुना जो अपनी-अपनी सत्ता के लिए ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से जुडने और देश विभाजन भी करने के लिए तैयार थे। तब ब्रिटिश संसद ने भारत को विभाजित स्वतन्त्रता दी।
जिन्नाह ने लगभग सभी मुसलमानों को अपने साथ मिला लिया, 1946 की क्रांति को तोड़ने वाला तलवार पोत का “मोहम्मद शरीफ” भी पाकिस्तानी नौसेना में लेफ्टिनेंट रैंक पर भर्ती कर लिया गया। लेकिन क्रांतिकारियों को नेहरू ने भारतीय सेना में शामिल नहीं होने दिया। इस नीति से बच्चूसिंह पूरी तरह से राजनीतिक दलों के खिलाफ हो गए।
आदरणीय भाई साहब ! कुछ अनजाना इतिहास भी दृष्टिगोचर हो रहा है । पूर्ण सत्य व रहस्य जानने की उत्सुकता है । धन्यवाद ।
धन्यवाद, भाई साहब ! हम श्री बच्चू सिंह का इतिहास क्रमशः सामने ला रहे हैं.