गीतिका/ग़ज़ल

ज़ख़्म

ज़ख़्म अपने कुछ इस तरह तराशते हैं
मकान बंद है हम फिर भी उसमे झांकते हैं

चाँद है दूर बोहोत दूर हमारी ज़द से
अजब जुनू है बा उम्मीद हो के ताकते हैं

बात जिससे भी की हरवक़त अनसुनी ही रही
सभी मसरूफ है बस अपनी अपनी हांकते हैं

तेरे शहर का भी मयार गिर गया है बहुत
यहाँ पे लोग दौलत से दिल को आंकते हैं

बे दिली की इक मुस्कान ओढ़े रहते हैं
गरीब लोग हैं महरूमियों को ढांकते हैं

अंकित शर्मा

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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2 thoughts on “ज़ख़्म

  • राजकुमार कांदु

    प्रिय अंकित जी! आपकी एक और उम्दा रचना पढ़कर हार्दिक खुशी हुई । आज के माहौल के लिए कितनी सटीक हैं आपकी ये पंक्तियां
    बात जिससे भी की हरवक़त अनसुनी ही रही

    सभी मसरूफ है बस अपनी अपनी हांकते है ।।

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