कांच के टुकड़े
टूटे हुए टुकड़ों को काश संभाला होता
आशियाँ को अपने यूँ न जलाया होता
गैरों को अपना बनाने की हसरत में यूँ
न अपनों पर बेरुखी का कहर ढाया होता
ईमान पर चलने वाले भी दागदार हो जाते हैं
मोह्हबत में इस कदर न प्यार को भुलाया होता
लबरेज रहीं आंखें हर पल आंसुओं में
काश जिंदगी के सच को झूठ न बनाया होता
दीवारें कब पाती हैं प्राण जिंदगी का
काश मौत के सच को न झुठलाया होता
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़