गीत “सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा”
ज़िन्दगी को आज खाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
उदर में जब पड़ गई दो घूँट हाला,
प्रेयसी लगनी लगी हर एक बाला,
जानवर जैसा बनाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
ध्यान जनता का हटाने के लिए,
नस्ल को पागल बनाने के लिए,
आज शासन को चलाती है सुरा,
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
आज मयखाने सजे हर गाँव में,
खोलती सरकार है हर ठाँव में,
सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
इस भयानक खेल में वो मस्त हैं,
इसलिए भोले नशेमन त्रस्त हैं,
हर कदम पर अब सताती है सुरा।
मौत के पैगाम को लाती सुरा।।
सोमरस के दो कसैले घूँट पी,
तोड़ कर अपनी नकेले ऊँट भी,
नाच नंगा अब नचाती है सुरा।
मौत के पैगाम को लाती सुरा।।
डस रहे हैं देश काले नाग अब,
कोकिला का “रूप” भऱकर काग अब,
गान गाता आज नाती बेसुरा।
मौत के पैगाम को लाती सुरा।।
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)