बगाबत
बगाबत पे उतर आती है जिंदगी ,
कानून को परे रखकर खंजर की तरह ।
लहूलुहान हो जाते हैं रिश्ते भी आजकल,
गैरों को अपना बनाने की जुस्तजू की तरह ।
आंखों में उतर आती है नमी अक्सर ,
ढूंढने की चाहत में खुशियों की डगर ।
जल उठते हैं दो चिराग आहट पाकर ,
जैसे हो यादें पुरानी मोह्हबत की तरह ।
हां खुशियां लिखती हूँ मैं गमों को बेचकर
है आशिक़ी आज भी भूले हुए चंद लम्हों से,
गैर होकर भी कब कयामत का दौर थमा
उर्स में आज भी जवां है मोह्हबत इत्र की तरह।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़